Barriers of Communication pdf Notes

Barriers of Communication pdf Notes संसार में प्राणी के जन्म से ही सम्प्रेषण क्रिया प्रभावी हो जाती है, अर्थात् पृथ्वी पर रहने वाला प्रत्येक प्राणी सम्प्रेषण प्रक्रिया का प्रयोग करता है। परन्तु मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो अच्छे व प्रभावी ढंग से अपनी किसी भी बात को सम्प्रेषित कर पाने में सक्षम है। सम्प्रेषण को सम्प्रेषक से प्राप्तकर्त्ता तक पहुँचाने में कई प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है। इन प्रक्रियाओं में आने वाली बाधाओं को ही सम्प्रेषण की बाधाएँ कहते हैं। सम्प्रेषण की बाधाएँ (Barriers of Communication) सम्प्रेषण को प्रभावित करने वाली बाधाओं का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है – 1. धन / वित्त सम्बन्धी बाधा (Money related Barrier) — धन की सीमितता के कारण भी सम्प्रेषण क्रिया में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। वित्तीय साधनों की अल्पता के कारण सन्देश सम्प्रेषणग्राही की पहुँच से दूर ही रह जाता है। वैज्ञानिक व शोधकर्ता विभिन्न स्थानों पर आयोजित संगोष्ठियों, परिचर्चाओं, सम्मेलनों, कार्यशालाओं में हिस्सा लेने से वंचित रह जाते हैं। आधुनिक तकनीक महँगी होने के कारण इनके द्वारा सन्देश प्राप्त होने में व्यवधान आते हैं। 2. समय सम्बन्धी बाधा (Time related Barrier) — सन्देश के सम्प्रेषण के समय यदि औपचारिक माध्यमों का उपयोग किया जाता है तो वे अधिक समय लेते हैं। इन माध्यमों द्वारा सन्देश के प्रकाशन में अधिक समय लगता है तथा सन्देश के सरल प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है। 3. साहित्यिक विस्फोट सम्बन्धी बाधा (Literature Explosion related Barrier) — ज्ञान के विस्फोट के कारण सम्पूर्ण साहित्य एक ही सम्प्रेषण केन्द्र से प्राप्त करना असम्भव है। स्वतन्त्र सम्प्रेषण में यह भी एक बाधक तत्त्व है। 4. आधुनिक तकनीक सम्बन्धी बाधा ( Modern Technique related Barrier)—वर्तमान समय में कम्प्यूटर के माध्यम से सम्प्रेषण प्रक्रिया को पूरा करना प्रत्येक के वश की बात नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति इस तकनीक का अभ्यस्त नहीं होता। साथ ही जिन स्थानों पर सन्देश कम्प्यूटर के माध्यम से सम्प्रेषित किए जाते हैं, वहाँ पर प्राप्तकर्ता उन्हें प्राप्त करने में कठिनाई का अनुभव करता है। 5. भाषा सम्बन्धी बाधा (Language related Barrier) — सम्प्रेषण के लिए भाषा अनिवार्य माध्यम है। शाब्दिक अथवा अशाब्दिक दोनों ही प्रकार की भाषाओं का सम्प्रेषण में प्रयोग किया जाता है। अधूरी, अस्पष्ट भाषा तथा असामयिक विविध अर्थों वाले शब्दों या संकेतों का चयन-सम्प्रेषण में प्रमुख बाधा है। 6. माध्यम सम्बन्धी बाधा (Medium related Barrier) — … Read more

Indian Models of Communication after Freedom

सम्प्रेषण के स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् के भारतीय प्रतिरूप (Indian Models of Communication after Freedom) अथवा  सम्प्रेषण के पाश्चात्य प्रतिरूप (Western Models of Communication) स्वतन्त्रता के पश्चात् सम्प्रेषण के विकसित स्वरूप को अंगीकार करने की आवश्यकता को महसूस किया गया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए केन्द्रीय सरकार के अन्तर्गत सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय का गठन किया गया तथा एक केबिनेट मन्त्री को इसका प्रभार सौंपा गया। ऐसे सम्प्रेषण तन्त्र के विकास की आवश्यकता पर बल दिया गया जो भारतीय पृष्ठभूमि के सर्वथा अनुकूल हो तथा उसकी सुलभता में कोई गतिरोध न हो। लेकिन प्राचीन भारतीय सम्प्रेषण प्रणाली का अपेक्षानुकूल विकास नहीं हो पाया। यही कारण है कि हमें विकास की दौड़ में अन्य राष्ट्रों की बराबरी करने के लिए पाश्चात्य सम्प्रेषण प्रतिरूपों को ही भारतीय मॉडल के रूप में स्वीकार करने के लिए जब-तब बाध्य होना पड़ता रहा है। विश्व के अनेक सम्प्रेषण विशेषज्ञों ने अपने-अपने मॉडल दिए हैं, जो निम्नवत्  हैं- 1. लॉसवैल मॉडल (Losswell Model) इसे ‘लॉसवैल का मौखिक मॉडल’ भी कहा जाता है। इसे 1948 ई० में अमेरिकी वैज्ञानिक हेरोल्ड लॉसवैल ने प्रस्तुत किया था। इस मॉडल में चार प्रमुख प्रश्नों को प्रदर्शित किया गया है— कौन, क्या, किसको, किसलिए । सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्प्रेषक के व्यावहारिक पहलुओं का लॉसवैल ने गहन विश्लेषण किया था। इस मॉडल के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं- कौन?  Who ? क्या कहता है ? Says what किस माध्यम से ? Through which channel? किसको ? To whom ? कितने प्रभावशाली ढंग से ? With what effect ? इसमें संचार प्रक्रिया के अनुरूप अनेक तत्त्वों का सम्मिलन रहता है। इनको एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है। यदि किसी एक तत्त्व को भी विलग कर दिया जाए तो सम्प्रेषण का मूल उद्देश्य ही धराशायी हो जाता है। इसमें पुन: लौटते हुए सन्देश के द्वारा सन्देश-प्राप्ति की प्रक्रिया का समावेश रहता है । 2. शैनन – वीवर मॉडल (Shannon and Weaver’s Model) 1949 ई० में क्लोडी शैनन व वारेन वीवर ने गणित पर आधारित एक मॉडल प्रस्तुत किया। इस मॉडल के अनुसार सूचना भेजने की सम्पूर्ण प्रक्रिया ही सम्प्रेषण है। सम्प्रेषण-जगत में यह मॉडल अधिक स्वीकृति प्राप्त कर चुका है। यह मॉडल वैज्ञानिक है। यदि सन्देश का स्रोत प्रमाणित व ज्ञात है, तभी इसे आगे बढ़ाया जाता है तथा सन्देश के चिह्नों में परिवर्तित होने से गोपनीयता बनी रहती है और यह एक सिस्टम प्रणाली के अधीन क्रियाशील रहता है ।  इसको ग्राफ के द्वारा इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है- … Read more

The Important Models of Communication – pdf Notes

Explain the important models of communication – Pdf Notes सम्प्रेषण के महत्त्वपूर्ण प्रतिमानों को समझाइए।  प्रत्येक व्यावसायिक संस्था या व्यक्ति किसी न किसी रूप में सूचनाएँ भेजता या प्राप्त करता है। छोटे व्यवसायों में आमने-सामने सन्देश का आदान-प्रदान होता है, किन्तु जैसे-जैसे संस्था उन्नति करती है, वैसे-वैसे सम्प्रेषण का विस्तार भी बढ़ता जाता है अतः स्पष्ट है कि जब कोई सन्देश किसी भी माध्यम द्वारा कहीं प्रेषित किया जाता है तो सम्प्रेषक को स्वतः सम्प्रेषण के मार्ग, भूमिका, खतरे, सुविधाएँ, प्रभाव व प्रामाणिकता की जानकारी प्राप्त हो जाती है, तत्पश्चात् सम्प्रेषक अन्य सन्देश प्रेषण के लिए भी वही मार्ग चयनित करता है। यदि इस कार्य में उसे सफलता प्राप्त होती है तो वह उसी मार्ग का चयन अन्य सन्देशों को प्रेषित करने हेतु भी करता है। यही स्थिति किसी मॉडल या प्रतिरूप को जन्म देती है।  सम्प्रेषण के भारतीय प्रतिरूप (Indian Models of Communication) किसी भी व्यावसायिक संगठन में अनेक प्रकार के सन्देशों का आदान-प्रदान आन्तरिक एवं बाह्य पक्षों में किया जाता है, जिनका स्पष्ट विभाजन एक जटिल कार्य है, किन्तु यह विभाजन किया जा सकता है कि सन्देश को किस माध्यम से प्रेषित किया गया है, सन्देश किसके द्वारा किसको सम्प्रेषित है। प्राचीन वैदिक काल में भी सम्प्रेषण की प्रक्रिया विद्यमान थी। यह’वसुधैव कुटुम्बकम्’ के विस्तृत सिद्धान्त पर आधारित थी। इसी प्रणाली को प्राचीन भारतीय सम्प्रेषण प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके बाद के काल खण्ड में भी यही प्रणाली सम्प्रेषण का माध्यम बनी रही। वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में तथा रामायण व महाभारत के महाकाव्यकाल में भी भारतीय सम्प्रेषण की यही विधा समाज में सम्प्रेषण का आधार बनी रही। भारतीय शासन पद्धति में यदि सम्प्रेषण की प्रक्रिया व उसके प्रबन्धन पर ध्यान दिया जाए तो निम्नांकित रूप सामने आता है — ‘मनुस्मृति’ में विस्तार के साथ सम्प्रेषण कला पर प्रकाश डाला गया है। महर्षि मनु ने सामाजिक परिवेश के अनुगामी संचार तन्त्र को विकसित रूप प्रदान किया। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में मनु द्वारा प्रतिस्थापित सम्प्रेषण के मॉडल लम्बे काल-खण्ड तक भारतीय भू-भाग में अपनी विशिष्टता बनाए रहे। भारतीय मनीषियों ने संचार के विकसित स्वरूपों का प्रतिपादन किया। इनमें संहिताओं, ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा कर्मकाण्ड का निरूपण करने वाले आख्यानों का विशेष महत्त्व रहा। इस क्षेत्र में ‘चाणक्य नीति’ का सर्वोपरि स्थान माना जा सकता है। सम्प्रेषण के स्वतन्त्रता पूर्व के भारतीय प्रतिरूप (Indian Models of Communication before Freedom) भारत के पारतन्त्र्य काल में 1857 ई० से 1947 ई० के बीच सम्प्रेषण के कई प्रतिरूप थे। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में सम्प्रेषण व्यवस्था की उपयोगिता मालूम हुई। ब्रिटिश सम्प्रेषण-व्यवस्था व उसके सफल प्रतिरूप के कारण ही हमारे क्रान्तिकारी अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल रहे और उन्हें मृत्यु का आलिंगन भी करना पड़ा। उस काल में उग्रपन्थी एवं नरमपन्थी नामक दो मुख्य विचारधाराएँ समान रूप से गतिशील थीं। इनके उद्देश्य तो समान थे, लेकिन सम्प्रेषण प्रणाली में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है; यथा प्रथम – गरम दल प्रतिरूप – द्वितीय नरम दल प्रतिरूप = उद्देश्य एक परन्तु रास्ते अलग-अलग  ‘नरम दल’ प्रतिरूप में सन्देश की प्राप्ति के पश्चात् सन्देश का अध्ययन किया जाता था। सन्देश का अध्ययन करते समय प्रत्येक बिन्दु पर गहराई से विचार-विमर्श कर एकरूपता की स्थापना की जाती थी, तब उचित होने पर आगे की कार्यवाही सुनिश्चित की जाती थी— सूचना > विचार-विमर्श > निर्णय > क्रियान्वयन … Read more

Main Parts or Steps of a Report

Main Parts or Steps of a Report किसी प्रतिवेदन के आधारभूत अंग या चरण  प्रथम चरण (First step ) — प्रतिवेदन लिखने से पूर्व प्रतिवेदन लेखक को उसकी संरचना या ढाँचे को निर्मित करना होता है। इसे प्रतिवेदन का नियोजन कहा जाता है। एक प्रतिवेदन तैयार करते समय उसके विषय से सम्बन्धित निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए, यही प्रतिवेदन की तैयारी का प्रथम चरण है- उपर्युक्त प्रकार के प्रश्न हमारे निरीक्षण में सहायक होते हैं। इन प्रश्नों से सम्बन्धित समस्या को परिभाषित करने में सहायता मिलती है । द्वितीय चरण (Second step) — दूसरे चरण के रूप में प्रतिवेदन को व्यवस्थित क्रम दिया जाता है। इस हेतु आधारभूत सिद्धान्तों का सहारा लिया जाता है। समस्या का चरणबद्ध रूप से अध्ययन किया जाता है तथा उसका उचित विभाजन किया जाता है। इस रूप में विभिन्न श्रेणियों का निर्माण हो जाता है। तृतीय चरण (Third step ) – प्रतिवेदन तैयार करने सम्बन्धी तृतीय चरण में एक औपचारिक कार्य योजना बनाई जाती है, जिसमें निम्नलिखित बातों का समावेश किया जाता है – -(1) समस्या का विस्तृत निवारण | (2) उद्देश्य का निवारण। चतुर्थ चरण (Fourth step) — इस चरण में समस्या से सम्बन्धित बिन्दुओं को जानने-समझने के लिए शोध का सहारा लिया जाता है। प्रतिवेदक समस्याओं से सम्बन्धित संगृहीत सूचनाओं (पुस्तक के द्वारा, जर्नल या अन्य प्रलेखों व प्रतिवेदनों के आधार पर ) का गहन अध्ययन करता है। इस प्रकरण द्वारा शोध में विस्तारपूर्वक जाया जाता है, इसके पश्चात् विभिन्न आँकड़ों का संकलन किया जाता है । यद्यपि सूचनाओं की समस्या से सम्बन्धित सूचनाओं का संग्रहण वह निम्नलिखित चार मुख्य माध्यमों द्वारा करता है – (1) प्रयोग करके। (2) प्रलेखों की जाँच/परख द्वारा। (3) निरीक्षण द्वारा । (4) व्यक्तियों के सर्वे द्वारा । प्रलेख, दस्तावेज व ऐतिहासिक अभिलेख ही प्राथमिक समंकों के मुख्य स्रोत हैं। निरीक्षक परियोजना के आधार पर भौतिक गतिविधियाँ व प्रक्रिया, वातावरण व मानवीय व्यवहार को समझने हेतु एक उपयोगी तकनीक है। पंचम चरण (Fifth step) — इस चरण में प्राय: तकनीकी व प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों का समाहार किया जाता है। इस रूप में विभिन्न तत्त्वों का गहराई से अध्ययन तथा परीक्षण हो जाता है।  षष्ठ चरण (Sixth step ) … Read more

Group Discussion

Group Discussion समूह चर्चा प्रबन्धन संस्थान नौकरियों की तलाश कर रहे विद्यार्थियों की सम्प्रेषणशीलता या कम्युनिकेटिव जाँच करने के लिए सामूहिक परिचर्चा के सशक्त माध्यम हैं। आज के प्रतियोगितात्मक एवं प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में विभिन्न सहयोगियों के बीच सम्प्रेषण के महत्त्व को समझते हुए विभिन्न प्रबन्धन संस्थान तथा प्रयत्नकर्त्ता लिखित परीक्षा और व्यक्तिगत साक्षात्कार के अलावा सामूहिक परिचर्चा परीक्षण का सहारा लेकर योग्य आवेदनकर्ताओं का चयन करते हैं। अतः स्पष्ट है कि समूह चर्चा में एक समस्या या नीतियों पर मौखिक चर्चा करके निष्कर्ष प्राप्त किया जाता है। समूह चर्चा के मूल उद्देश्य (Fundamental Objectives of the Group Discussion) दो व्यक्तियों के मध्य जो वार्तालाप का संचार होता है, उसमें विशिष्ट कौशल के तत्त्वों का समावेश कर वार्त्ता को तर्कसंगत रूप प्रदान किया जा सकता है। इसी को संचरण-कौशल कहा गया है। आदिकाल से ही मानव का दूसरे मानव के साथ यह वार्त्ता- कौशल जारी है। सभ्यता के दौर में इस कौशल ने नए आयामों का स्पर्श किया है। मित्र – मित्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, मालिक – नौकर के बीच विचार-विमर्श ही वार्तालाप है। यह साझे का सौदा है, वक्ता – श्रोता के बीच सहमति है। वक्ता सदैव श्रोता की मनः स्थिति, अभिरुचि और इच्छा के अनुरूप ही अपनी बातें रखता है। श्रोता उठने लगे, कतराने लगे, अनायास चुटकी लेने लगे तो वक्ता असफल है। श्रोता से तालमेल बैठाकर ही विचार-विनिमय के मूल उद्देश्य की प्राप्ति हो सकती है। अध्ययन की दृष्टि से समूह चर्चा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं- (1) समूह चर्चा का लक्ष्य विचारों / आदर्शों की प्रस्तुति व इस सम्बन्ध में प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करना होता है जिससे आगे की जिज्ञासा प्रकट होती है, जो पुनः प्रश्न और प्रतिप्रश्न पूछने का निमित्त बनती है। (2) समूह चर्चा में विभिन्न रचनात्मक विचारों के द्वारा समस्या का सम्यक् निदान ढूँढा जाता है। (3) निर्णय प्रक्रिया में विशिष्ट प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित होते हैं, अतः समूह चर्चा में इन विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा निर्णय दिए जाते हैं। इस प्रकार की समूह चर्चा के लिए स्पष्ट व रचनात्मक भाषा होती है।

Non-verbal Communication

Non-verbal Communication गैर-क्रिया सम्प्रेषण मानवशास्त्रियों का यह विचार है कि जब से मानव जाति ने परस्पर वार्तालाप प्रारम्भ किया होगा तब सर्वप्रथम उसने अपने शरीर के विभिन्न अंगों के माध्यम से इशारों में सन्देश दिए होंगे। धीरे-धीरे वे इशारे किसी प्रकार से एक – एक शब्द में बदल गए परिणामस्वरूप एक भाषा का निर्माण हुआ होगा। उदाहरण के लिए जब व्यक्ति, यहाँ तक कि जानवर को भी जब क्रोध आता है तब उस क्रोध की अभिव्यक्ति वह दाँत पीसकर करता है। इसके विपरीत, स्नेह प्रकट करने की स्थिति में वह दूसरे को स्पर्श करना पसन्द करता है। सम्प्रेषण प्रक्रिया में सन्देशों का आदान-प्रदान होता है। प्रेषक तथा प्राप्तकर्त्ता सन्देश एवं विचार को समान अर्थ में समझते हैं। इस प्रक्रिया में सन्देश जब शब्दों में व्यक्त किया जाए तो उसको शाब्दिक सम्प्रेषण (Verbal Communication) कहते हैं। इसके विपरीत, जब सन्देश शब्दों के अतिरिक्त चिह्नों (Signs), लक्षणों ( Symptoms) अथवा संकेतों (Signals) तथा सूचित चिह्नों के द्वारा सम्प्रेषित हो तो उसे अशाब्दिक सम्प्रेषण (Non-verbal Communication) कहते हैं। प्राचीन समय में जब मानव ने भाषा की खोज नहीं की थी, उस समय भी वह अपने सन्देशों का आदान-प्रदान संकेतों एवं चिह्नों के माध्यम से करता था। आज इक्कीसवीं शताब्दी में जब मानव सभ्यता काफी विकसित हो गई है तो सूचना सम्प्रेषण के अनेकों आधुनिक साधन एवं तन्त्र मानव के पास उपलब्ध हैं। लेकिन इसके बावजूद आज भी अशाब्दिक सम्प्रेषण मानव के लिए प्रासंगिक एवं महत्त्वपूर्ण है। वह विचार, भाव अथवा सन्देश जो हजारों शब्दों में भी सम्प्रेषित नहीं हो पाता, वह मात्र संकेत, चित्र, हाव-भाव, भाव-भंगिमा द्वारा कुछ सेकण्डों में ही सम्प्रेषित किया जा सकता है क्योंकि मानव की ज्ञानेन्द्रियों का बोध एवं उनका प्रभाव मानव जीवन के अस्तित्व का प्रमाण है। इस प्रकार अशाब्दिक सम्प्रेषण, सम्प्रेषण का एक प्राकृतिक, स्वाभाविक एवं शक्तिशाली माध्यम है। इसको संकेत सम्प्रेषण भी कहते हैं। अशाब्दिक सम्प्रेषण के संकेत, ज्ञान, विचार, दृष्टिकोण, विश्वास एवं भावनाओं के प्रतीक होते हैं, जिनका सामयिक ढंग से वातावरण के अनुरूप सम्प्रेषण हेतु चयन किया जाता है।