Saturday, December 21, 2024
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Meaning of Social Injustice Notes

Meaning of Social Injustice notes

सामाजिक अन्याय से आशय 

किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा ‘सामाजिक अन्याय’ है। अब यह समस्या – अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो चुकी है। शायद ही कोई ऐसा राष्ट्र होगा जिसमें कुछ-न-कुछ मात्रा में सामाजिक अन्याय न होता हो। विभिन्न अध्ययन यह बताते हैं कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में सामाजिक अन्याय की समस्या अधिक गम्भीर है। अशिक्षा, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, आर्थिक साधनों की कमी व ऐसे ही अनेक कारण विकासशील देशों में सामाजिक अन्याय को दूर करने में बाधक है। यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को सामाजिक न्याय दिलाने में असमर्थ होता है तो उस राष्ट्र के आर्थिक विकास के सभी आयाम अधूरे ही रहेगे। 

सामाजिक न्याय से जुड़ी समस्याएँ (Problems associated with Social Injustice)

सामाजिक अन्याय के अन्तर्गत निम्नलिखित समस्याओं को शामिल किया जाता है

  • अनूसूचित जातियों की समस्या तथा अस्पृश्यता;
  • अनुसूचित जनजातियों के साथ सामाजिक अन्याय;
  • जाति प्रथा तथा सामाजिक अन्याय;
  • कमजोर वर्गों पर होने वाला अत्याचार;
  • स्त्रियों के साथ अत्याचार। 

अनुसूचित जातियों की समस्या तथा अस्पृश्यता (Problem of Scheduled Castes and Untouchability)-

यद्यपि अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों तथा शिक्षा में आरक्षण दिया गया है, तथापि ये जातियाँ अभी भी काफी पिछड़ी हुई हैं तथा देश की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए प्रयासरत हैं। वर्ष 1987-88 में इन जातियों का लगभग 44.7% भाग गरीबी रेखा से नीचे था, जबकि कुल जनसंख्या में निर्धनों का भाग केवल 33.4% था। इन जातियों के अधिकतर लोगों पर कोई भू-स्वामित्व नहीं है। इन जातियों के लोगों में जहाँ एक ओर काफी आई०ए०एस० अधिकारी तथा अध्यापक आदि हैं तो दूसरा ओर भूमिहीन मजदूर एवं असंगठित श्रमिक भी हैं। साक्षरता में इनकी संख्या काफी कम है। 

ग्रामीण क्षेत्रों में ये अस्पृश्यता के शिकार हैं। अस्पृश्यता किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक-रूप में होती है। यह मानव अधिकारों का हनन है। यह अस्पृश्यता की भावना पूरे भारतवर्ष में फैली हुई है। 

2. अनुसूचित जनजातियों के साथ सामाजिक अन्याय (Social Injustice with Schedule Tribes)-

अनुसूचित जनजातियों के लोग मुख्य रूप से आदिवासी इलाकों, पहाड़ों, जंगलों में निवास करते हैं। उनके सामाजिक रीति-रिवाज भी सामान्य जातियों के रीति-रिवाजों से काफी अलग हैं। ये खेती, पशुपालन तथा आखेट करने में संलग्न रहते हैं। देश की कुल जनसंख्या में इनका हिस्सा लगभग 8% है। सबसे पहले इनका शोषण इनसे इनकी खेती की भूमि औने-पौने दामों में लेकर किया गया। जब इन लोगों के हाथों से भूमि निकल गई तो विवश होकर इन्हें मजदूरी करने के लिए बाध्य होना पड़ा। अत: भूस्वामी होने के बावजूद ज्यादातर अनुसूचित जनजाति के लोग भूमिहीन श्रमिक हो गए। इन जातियों में शिक्षा का भी काफी अभाव है। 1991 ई० में इनकी साक्षरता दर 29.69% थी जबकि उस समय शेष जनता की साक्षरता दर 52 . 21% रही। इस प्रकार अनुसूचित जनजातियों एवं सामान्य जातियों में साक्षरता के आधार पर करीब 23% का अन्तर था। वर्ष 1987-88 में जनजातियों के लगभग 52 . 6% लोग निर्धन थे, जबकि कुल जनसंख्या में निर्धनों की संख्या 33. 4% थी। निर्धनता, अज्ञानता, बेरोजगारी के कारण इनको बँधुआ मजदूर के रूप में भी रखा जाता है। वे लोग, जो इन्हें बँधुआ मजदूरों के रूप में रखते हैं, इनको बहुत प्रताड़ित करते हैं। इनकी महिलाओं से बर्तन-झाड़ का काम लिया जाता है तथा उनको मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के साथ-साथ इनका शारीरिक शोषण भी किया जाता है। असंगठित होने की वजह से युगों से इनका इसी प्रकार शोषण होता आ रहा है। 

3. जाति प्रथा तथा सामाजिक अन्याय (Caste System and Social – Injustice)-

भारतवर्ष में हिन्दू धर्म के अन्तर्गत अनेक जातियाँ हैं। जाति से आशय एक ऐसे समूह से है जिसकी सदस्यता का निर्धारण जन्म से होता है। आज जाति प्रथा सामाजिक अन्याय का एक कारण बन गई है क्योंकि इसने समाज की एकरूपता या समरूपता को भंग कर दिया है। एक जाति के लोगों का खान-पान, शादी-विवाह, आना-जाना, मेल-मिलाप आदि सभी कार्य अपनी ही जाति के लोगों के साथ होते हैं। आज प्रत्येक जाति एक द्वीप बन गई है, जिसका दूसरी जाति के साथ अधिक सम्बन्ध नहीं बन पाता है। शहरों की तुलना में गाँवों में जाति प्रथा की कठोरता ज्यादा भयंकर है। जाति प्रथा से संलग्न सामाजिक अन्याय तब अधिक उभरकर सामने आता है जब ‘ऊँची जाति के लोगों के सामने अथवा साथ में छोटी जाति के लोगों को उठने-बैठने भी नहीं दिया जाता तथा न ही उन्हें उच्च जाति में शादी-विवाह करने की इजाजत समाज द्वारा दी जाती है। शिक्षा प्राप्ति में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। निम्न जातियों को उच्च जातियों द्वारा हीन दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें उच्च जातियों के कुएँ से पानी भरने की इजाजत न देना या मन्दिर में पूजा करने की इजाजत न देना भी सामाजिक अन्याय के ही प्रमाण परिणामस्वरूप सामाजिक गतिशीलता कम हो जाती है तथा देश के आर्थिक विकास में बाधा आती है। जाति प्रथा द्वारा सामाजिक अन्याय का एक जीता-जागता उदाहरण यहाँ की कल जातियो; खासकर ‘दलितों’ व ‘हरिजनों’ को घृणा की दृष्टि से देखा जाना है। यद्यपि आज हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हुए लगभग 70 वर्ष हो गए, लेकिन इस ‘अस्पृश्यता’ रूपी दानव का खात्मा नहीं हो पाया है। अभी भी लोगों की मानसिकता में बदलाव आना बाकी है। यद्यपि अब अस्पृश्यता-प्रतिशत में काफी कमी आयी है तथा लोगों की मानसिकता में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है। 

4.कमजोर वर्गों पर होने वाला अत्याचार (Atrocity on Weaker Sections)-

कमजोर वर्ग से आशय ऐसे वर्गों से है जिनमें लोग दाय-वंचित (Disinherited) हैं। इस वर्ग में अनुसूचित जनजाति के कृषि श्रमिक, बँधुआ मजदूर, वनवासी, मछुआरे, असंगठित मजदूर, सफाई कर्मचारी तथा इन्हीं वर्गों की महिलाओं, बच्चों इत्यादि को शामिल किया गया है। – इन वर्गों पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते रहे हैं। इन वर्गों को सामाजिक असमानता तथा अन्याय का सामना करना पड़ता है। इन्हें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा से पीछे धकेल दिया जाता है। इतना ही नहीं, इन्हें राजनीतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से भी पीछे धकेला जाता रहा है। ये समाज के सबसे अधिक तिरस्कृत वर्ग माने जाते हैं। इस वर्ग में आने वाले व्यक्तियों का बहुत प्रताड़न एवं शोषण किया गया है। 

स्त्रियों के साथ अत्याचार (Atrocity on Womers)

यद्यपि अब पुरानी धारणाएँ बदल रही हैं तथा लोगों की मानसिकता में काफी परिवर्तन देखे जा सकते हैं, तथापि शहरों एवं गाँवों में लोगों के द्वारा महिलाओं पर फब्तियाँ कसना, बलात्कार की घटनाएँ, कामकाजी व घरेलू महिलाओं का यौन शोषण, नववधुओं की दहेज न मिलने के कारण हत्या आदि ऐसी अनेक घटनाएँ प्रकाश में आ रही हैं, जो महिलाओं पर होने वाले अत्याचार को प्रतिविम्बित करती हैं। सदियों से स्त्रियों को भोग-विलास की वस्तु के रूप में देखा गया है। आज भी विज्ञापनों में महिलाओं को उत्तेजक व अश्लील ढंग से प्रस्तुत करके वास्तव में उनका दैहिक शोषण ही किया जा रहा है। लड़की का जब जन्म होता है तो दादा-दादी का चेहरा उदास हो जाता है। वे लड़की को एक भार के रूप में समझते हैं। कुछ दशाओं में; जैसे–अल्ट्रा साउण्ड विधि से यह ज्ञात होने पर कि गर्भ में लड़की है तो उसकी भ्रूणावस्था में ही हत्या कर दी जाती है। इसके अलावा परिवारों में लड़कियों के पोषण पर भी कम ध्यान दिया जाता है। स्त्रियों को घर में शो-पीस की तरह सजाकर तथा पर्दे में रखा जाता है। रोजगार के क्षेत्र में भी स्त्रियों के प्रति भेदभाव की नीति अपनायी जाती है। 

सामाजिक अन्याय को समाप्त करने हेतु उपाय 

(Measures to eradicate Social Injustice)

देश से सामाजिक अन्याय की समाप्ति हेतु अपनाए गए प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

(अ) सरकारी तथा कानूनी उपाय 

(Governmental and Legal Measures)

1. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का उत्थान-

इनके उत्थान एवं विकास के लिए सरकार ने अक्टूबर 1999 ई० में एक पृथक् ‘जनजातीय कार्य मन्त्रालय’ का गठन किया है। देश में अब 194 समन्वित जनजातीय विकास परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। 14 राज्यों में अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के 10 प्रतिशत से कम साक्षरता वाले 134 जिलों में यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके अन्तर्गत पाँचवीं कक्षा तक की लड़कियों के लिए आवासीय विद्यालयों की स्थापना की गई है। 

जनजातियों के लोगों को व्यापारियों के शोषण से बचाने तथा उन्हें छिटपुट वन-उत्पादों और अपनी जरूरत से अधिक कृषि उपज के लाभप्रद मूल्य दिलाने के लिए सरकार द्वारा 1987 ई० में ‘भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास परिसंघ’ (ट्राइफेड) का गठन किया गया है। . वर्ष 2002-03 में आदिवासी महिला सशक्तिकरण योजना’ शुरू की गई थी। इसमें अनुसूचित जनजाति की अत्यन्त गरीब महिलाओं को कोई काम-धन्धा शुरू कराने के लिए 4% प्रतिवर्ष ब्याज की दर से ₹ 50,000 तक का ऋण दिया गया ताकि लाभ पाने वाली महिलाएँ अपनी आय बढ़ा सकें। इस योजना से बड़ी मात्रा में गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले अनुसूचित जनजाति के परिवारों को लाभ हुआ। भारत सरकार द्वारा इन जातियों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य पेयजल एवं साफ-सफाई की सुविधाओं को उपलब्ध कराने तथा इनका विकास करने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। 

राज्यों के जनजातीय विकास के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए विशेष केन्द्रीय सहायता दी जाती है। यह सहायता मुख्यतया परिवार आधारित आमदनी योजनाओं के लिए और कृषि, बागवानी, लघु सिंचाई, मृदा संरक्षण, पशुपालन, वानिकी, शिक्षा, सहकारी संगठन, मत्स्य-पालन, ग्रामीण वानिकी, कुटीर तथा लघु उद्योग जैसे क्षेत्रों में और न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के लिए दी जाती है। 

पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए योजनाएँ-पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं; जैसे 

(i) विभिन्न प्रतियोगी/प्रवेश परीक्षा में सफल होने के लिए परीक्षा-पूर्व कोचिंग सरकारी नौकरी में आरक्षण, 

(ii) पिछड़े वर्ग के लड़कों तथा लड़कियों के लिए छात्रावास की सुविधा,

(iii) शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति की सुविधा,

(iv) सरकारी नौकरी में आरक्षण की सुविधा, 

(v) राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग और विकास वित्त’ की स्थापना तथा गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले पिछड़े वर्गों के लोगों के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए रियायती दरों पर वित्तीय सहायता की व्यवस्था।  Meaning of Social Injustice Notes

2. अल्पसंख्यक वर्ग के लिए योजनाएँ—

मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि अल्पसंख्यकों को इस वर्ग में रखा गया है। नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-98 से 2001-02) के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय के कमजोर वर्गों के उम्मीदवारों को प्रशिक्षण देने के लिए ₹ 11. 25 करोड़ की राशि जारी की गई। .सरकार ने पाँच अरब रुपये के निवेश से ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम’ की स्थापना की है, यह निगम अल्पसंख्यक समुदाय के पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए आर्थिक और विकास सम्बन्धी गतिविधियों को बढ़ावा देता है। 

3. वृद्धों के कल्याण के लिए योजनाएँ–

वृद्धों के कल्याण के लिए ‘वृद्ध व्यक्तियों के लिए समन्वित कार्यक्रम’ शुरू किया गया है। इस योजना के तहत वृद्धाश्रमों में दिन में देखभाल करने वाले केन्द्रों, सचल अस्पतालों की स्थापना व रख-रखाव तथा वृद्ध लोगों को गैर-संस्थागत सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए गैर-सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता दी जाती है। वृद्ध व्यक्तियों के लिए जनवरी 1999 ई० में ‘राष्ट्रीय नीति’ की घोषणा की गई है। . 

4. दिव्यांगों के कल्याण हेतु योजनाएँ—

दिव्यांग व्यक्तियों के स्वयंसेवी कार्य-कलापों को बढ़ावा देने के लिए सरकार के द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। 24 जनवरी, 1997 ई० को ‘राष्ट्रीय दिव्यांग वित्त निगम’ की स्थापना की गई है। इसका उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों को स्वरोजगार के लिए धन उपलब्ध कराकर उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित करना है 


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