The Important Models of Communication – pdf Notes

Explain the important models of communication – Pdf Notes सम्प्रेषण के महत्त्वपूर्ण प्रतिमानों को समझाइए।  प्रत्येक व्यावसायिक संस्था या व्यक्ति किसी न किसी रूप में सूचनाएँ भेजता या प्राप्त करता है। छोटे व्यवसायों में आमने-सामने सन्देश का आदान-प्रदान होता है, किन्तु जैसे-जैसे संस्था उन्नति करती है, वैसे-वैसे सम्प्रेषण का विस्तार भी बढ़ता जाता है अतः स्पष्ट है कि जब कोई सन्देश किसी भी माध्यम द्वारा कहीं प्रेषित किया जाता है तो सम्प्रेषक को स्वतः सम्प्रेषण के मार्ग, भूमिका, खतरे, सुविधाएँ, प्रभाव व प्रामाणिकता की जानकारी प्राप्त हो जाती है, तत्पश्चात् सम्प्रेषक अन्य सन्देश प्रेषण के लिए भी वही मार्ग चयनित करता है। यदि इस कार्य में उसे सफलता प्राप्त होती है तो वह उसी मार्ग का चयन अन्य सन्देशों को प्रेषित करने हेतु भी करता है। यही स्थिति किसी मॉडल या प्रतिरूप को जन्म देती है।  सम्प्रेषण के भारतीय प्रतिरूप (Indian Models of Communication) किसी भी व्यावसायिक संगठन में अनेक प्रकार के सन्देशों का आदान-प्रदान आन्तरिक एवं बाह्य पक्षों में किया जाता है, जिनका स्पष्ट विभाजन एक जटिल कार्य है, किन्तु यह विभाजन किया जा सकता है कि सन्देश को किस माध्यम से प्रेषित किया गया है, सन्देश किसके द्वारा किसको सम्प्रेषित है। प्राचीन वैदिक काल में भी सम्प्रेषण की प्रक्रिया विद्यमान थी। यह’वसुधैव कुटुम्बकम्’ के विस्तृत सिद्धान्त पर आधारित थी। इसी प्रणाली को प्राचीन भारतीय सम्प्रेषण प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके बाद के काल खण्ड में भी यही प्रणाली सम्प्रेषण का माध्यम बनी रही। वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में तथा रामायण व महाभारत के महाकाव्यकाल में भी भारतीय सम्प्रेषण की यही विधा समाज में सम्प्रेषण का आधार बनी रही। भारतीय शासन पद्धति में यदि सम्प्रेषण की प्रक्रिया व उसके प्रबन्धन पर ध्यान दिया जाए तो निम्नांकित रूप सामने आता है — ‘मनुस्मृति’ में विस्तार के साथ सम्प्रेषण कला पर प्रकाश डाला गया है। महर्षि मनु ने सामाजिक परिवेश के अनुगामी संचार तन्त्र को विकसित रूप प्रदान किया। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में मनु द्वारा प्रतिस्थापित सम्प्रेषण के मॉडल लम्बे काल-खण्ड तक भारतीय भू-भाग में अपनी विशिष्टता बनाए रहे। भारतीय मनीषियों ने संचार के विकसित स्वरूपों का प्रतिपादन किया। इनमें संहिताओं, ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा कर्मकाण्ड का निरूपण करने वाले आख्यानों का विशेष महत्त्व रहा। इस क्षेत्र में ‘चाणक्य नीति’ का सर्वोपरि स्थान माना जा सकता है। सम्प्रेषण के स्वतन्त्रता पूर्व के भारतीय प्रतिरूप (Indian Models of Communication before Freedom) भारत के पारतन्त्र्य काल में 1857 ई० से 1947 ई० के बीच सम्प्रेषण के कई प्रतिरूप थे। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में सम्प्रेषण व्यवस्था की उपयोगिता मालूम हुई। ब्रिटिश सम्प्रेषण-व्यवस्था व उसके सफल प्रतिरूप के कारण ही हमारे क्रान्तिकारी अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल रहे और उन्हें मृत्यु का आलिंगन भी करना पड़ा। उस काल में उग्रपन्थी एवं नरमपन्थी नामक दो मुख्य विचारधाराएँ समान रूप से गतिशील थीं। इनके उद्देश्य तो समान थे, लेकिन सम्प्रेषण प्रणाली में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है; यथा प्रथम – गरम दल प्रतिरूप – द्वितीय नरम दल प्रतिरूप = उद्देश्य एक परन्तु रास्ते अलग-अलग  ‘नरम दल’ प्रतिरूप में सन्देश की प्राप्ति के पश्चात् सन्देश का अध्ययन किया जाता था। सन्देश का अध्ययन करते समय प्रत्येक बिन्दु पर गहराई से विचार-विमर्श कर एकरूपता की स्थापना की जाती थी, तब उचित होने पर आगे की कार्यवाही सुनिश्चित की जाती थी— सूचना > विचार-विमर्श > निर्णय > क्रियान्वयन … Read more

Main Parts or Steps of a Report

Main Parts or Steps of a Report किसी प्रतिवेदन के आधारभूत अंग या चरण  प्रथम चरण (First step ) — प्रतिवेदन लिखने से पूर्व प्रतिवेदन लेखक को उसकी संरचना या ढाँचे को निर्मित करना होता है। इसे प्रतिवेदन का नियोजन कहा जाता है। एक प्रतिवेदन तैयार करते समय उसके विषय से सम्बन्धित निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए, यही प्रतिवेदन की तैयारी का प्रथम चरण है- उपर्युक्त प्रकार के प्रश्न हमारे निरीक्षण में सहायक होते हैं। इन प्रश्नों से सम्बन्धित समस्या को परिभाषित करने में सहायता मिलती है । द्वितीय चरण (Second step) — दूसरे चरण के रूप में प्रतिवेदन को व्यवस्थित क्रम दिया जाता है। इस हेतु आधारभूत सिद्धान्तों का सहारा लिया जाता है। समस्या का चरणबद्ध रूप से अध्ययन किया जाता है तथा उसका उचित विभाजन किया जाता है। इस रूप में विभिन्न श्रेणियों का निर्माण हो जाता है। तृतीय चरण (Third step ) – प्रतिवेदन तैयार करने सम्बन्धी तृतीय चरण में एक औपचारिक कार्य योजना बनाई जाती है, जिसमें निम्नलिखित बातों का समावेश किया जाता है – -(1) समस्या का विस्तृत निवारण | (2) उद्देश्य का निवारण। चतुर्थ चरण (Fourth step) — इस चरण में समस्या से सम्बन्धित बिन्दुओं को जानने-समझने के लिए शोध का सहारा लिया जाता है। प्रतिवेदक समस्याओं से सम्बन्धित संगृहीत सूचनाओं (पुस्तक के द्वारा, जर्नल या अन्य प्रलेखों व प्रतिवेदनों के आधार पर ) का गहन अध्ययन करता है। इस प्रकरण द्वारा शोध में विस्तारपूर्वक जाया जाता है, इसके पश्चात् विभिन्न आँकड़ों का संकलन किया जाता है । यद्यपि सूचनाओं की समस्या से सम्बन्धित सूचनाओं का संग्रहण वह निम्नलिखित चार मुख्य माध्यमों द्वारा करता है – (1) प्रयोग करके। (2) प्रलेखों की जाँच/परख द्वारा। (3) निरीक्षण द्वारा । (4) व्यक्तियों के सर्वे द्वारा । प्रलेख, दस्तावेज व ऐतिहासिक अभिलेख ही प्राथमिक समंकों के मुख्य स्रोत हैं। निरीक्षक परियोजना के आधार पर भौतिक गतिविधियाँ व प्रक्रिया, वातावरण व मानवीय व्यवहार को समझने हेतु एक उपयोगी तकनीक है। पंचम चरण (Fifth step) — इस चरण में प्राय: तकनीकी व प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों का समाहार किया जाता है। इस रूप में विभिन्न तत्त्वों का गहराई से अध्ययन तथा परीक्षण हो जाता है।  षष्ठ चरण (Sixth step ) … Read more

Group Discussion

Group Discussion समूह चर्चा प्रबन्धन संस्थान नौकरियों की तलाश कर रहे विद्यार्थियों की सम्प्रेषणशीलता या कम्युनिकेटिव जाँच करने के लिए सामूहिक परिचर्चा के सशक्त माध्यम हैं। आज के प्रतियोगितात्मक एवं प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में विभिन्न सहयोगियों के बीच सम्प्रेषण के महत्त्व को समझते हुए विभिन्न प्रबन्धन संस्थान तथा प्रयत्नकर्त्ता लिखित परीक्षा और व्यक्तिगत साक्षात्कार के अलावा सामूहिक परिचर्चा परीक्षण का सहारा लेकर योग्य आवेदनकर्ताओं का चयन करते हैं। अतः स्पष्ट है कि समूह चर्चा में एक समस्या या नीतियों पर मौखिक चर्चा करके निष्कर्ष प्राप्त किया जाता है। समूह चर्चा के मूल उद्देश्य (Fundamental Objectives of the Group Discussion) दो व्यक्तियों के मध्य जो वार्तालाप का संचार होता है, उसमें विशिष्ट कौशल के तत्त्वों का समावेश कर वार्त्ता को तर्कसंगत रूप प्रदान किया जा सकता है। इसी को संचरण-कौशल कहा गया है। आदिकाल से ही मानव का दूसरे मानव के साथ यह वार्त्ता- कौशल जारी है। सभ्यता के दौर में इस कौशल ने नए आयामों का स्पर्श किया है। मित्र – मित्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, मालिक – नौकर के बीच विचार-विमर्श ही वार्तालाप है। यह साझे का सौदा है, वक्ता – श्रोता के बीच सहमति है। वक्ता सदैव श्रोता की मनः स्थिति, अभिरुचि और इच्छा के अनुरूप ही अपनी बातें रखता है। श्रोता उठने लगे, कतराने लगे, अनायास चुटकी लेने लगे तो वक्ता असफल है। श्रोता से तालमेल बैठाकर ही विचार-विनिमय के मूल उद्देश्य की प्राप्ति हो सकती है। अध्ययन की दृष्टि से समूह चर्चा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं- (1) समूह चर्चा का लक्ष्य विचारों / आदर्शों की प्रस्तुति व इस सम्बन्ध में प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करना होता है जिससे आगे की जिज्ञासा प्रकट होती है, जो पुनः प्रश्न और प्रतिप्रश्न पूछने का निमित्त बनती है। (2) समूह चर्चा में विभिन्न रचनात्मक विचारों के द्वारा समस्या का सम्यक् निदान ढूँढा जाता है। (3) निर्णय प्रक्रिया में विशिष्ट प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित होते हैं, अतः समूह चर्चा में इन विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा निर्णय दिए जाते हैं। इस प्रकार की समूह चर्चा के लिए स्पष्ट व रचनात्मक भाषा होती है।

Non-verbal Communication

Non-verbal Communication गैर-क्रिया सम्प्रेषण मानवशास्त्रियों का यह विचार है कि जब से मानव जाति ने परस्पर वार्तालाप प्रारम्भ किया होगा तब सर्वप्रथम उसने अपने शरीर के विभिन्न अंगों के माध्यम से इशारों में सन्देश दिए होंगे। धीरे-धीरे वे इशारे किसी प्रकार से एक – एक शब्द में बदल गए परिणामस्वरूप एक भाषा का निर्माण हुआ होगा। उदाहरण के लिए जब व्यक्ति, यहाँ तक कि जानवर को भी जब क्रोध आता है तब उस क्रोध की अभिव्यक्ति वह दाँत पीसकर करता है। इसके विपरीत, स्नेह प्रकट करने की स्थिति में वह दूसरे को स्पर्श करना पसन्द करता है। सम्प्रेषण प्रक्रिया में सन्देशों का आदान-प्रदान होता है। प्रेषक तथा प्राप्तकर्त्ता सन्देश एवं विचार को समान अर्थ में समझते हैं। इस प्रक्रिया में सन्देश जब शब्दों में व्यक्त किया जाए तो उसको शाब्दिक सम्प्रेषण (Verbal Communication) कहते हैं। इसके विपरीत, जब सन्देश शब्दों के अतिरिक्त चिह्नों (Signs), लक्षणों ( Symptoms) अथवा संकेतों (Signals) तथा सूचित चिह्नों के द्वारा सम्प्रेषित हो तो उसे अशाब्दिक सम्प्रेषण (Non-verbal Communication) कहते हैं। प्राचीन समय में जब मानव ने भाषा की खोज नहीं की थी, उस समय भी वह अपने सन्देशों का आदान-प्रदान संकेतों एवं चिह्नों के माध्यम से करता था। आज इक्कीसवीं शताब्दी में जब मानव सभ्यता काफी विकसित हो गई है तो सूचना सम्प्रेषण के अनेकों आधुनिक साधन एवं तन्त्र मानव के पास उपलब्ध हैं। लेकिन इसके बावजूद आज भी अशाब्दिक सम्प्रेषण मानव के लिए प्रासंगिक एवं महत्त्वपूर्ण है। वह विचार, भाव अथवा सन्देश जो हजारों शब्दों में भी सम्प्रेषित नहीं हो पाता, वह मात्र संकेत, चित्र, हाव-भाव, भाव-भंगिमा द्वारा कुछ सेकण्डों में ही सम्प्रेषित किया जा सकता है क्योंकि मानव की ज्ञानेन्द्रियों का बोध एवं उनका प्रभाव मानव जीवन के अस्तित्व का प्रमाण है। इस प्रकार अशाब्दिक सम्प्रेषण, सम्प्रेषण का एक प्राकृतिक, स्वाभाविक एवं शक्तिशाली माध्यम है। इसको संकेत सम्प्रेषण भी कहते हैं। अशाब्दिक सम्प्रेषण के संकेत, ज्ञान, विचार, दृष्टिकोण, विश्वास एवं भावनाओं के प्रतीक होते हैं, जिनका सामयिक ढंग से वातावरण के अनुरूप सम्प्रेषण हेतु चयन किया जाता है। 

Language Barriers in Business Communication pdf

Language Barriers in Business Communication pdf भाषागत अवरोध इस प्रकार की बाधाएँ एवं रुकावटें उन कारणों से उत्पन्न होती हैं जिनका सम्बन्ध भाषा से होता है। संचार में प्रयुक्त शब्दों, चिह्नों तथा आँकड़ों की प्राप्तकर्ता द्वारा अपने अनुभव के आधार पर व्याख्या की जाती है, जिससे शंका की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। विभिन्न शब्दों और चिह्नों के विभिन्न अर्थ निकालने, खराब शब्दावली एवं व्याकरण के अधूरे ज्ञान के कारण इसप्रकार की बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। भाषा सम्बन्धी प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित है- 1. अनेकार्थी शब्दों का प्रयोग (Use of different context words ) – जब संचार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिनके अनेक अर्थ हो सकते हैं तो यह हो सकता है कि प्रेषक ने जिस अर्थ में शब्द का प्रयोग किया है, प्राप्तकर्त्ता उसको उसी रूप में न समझकर कोई अन्य अर्थ में समझ ले । ऐसी स्थिति में संचार पूर्ण और सफल नहीं हो सकेगा। ‘मर्फी’ के अनुसार अंग्रेजी शब्द RUN के 110 अर्थ निकाले जा सकते हैं। अतः अनेकार्थी शब्दों के प्रयोग के कारण संचार के मार्ग में बाधा उत्पन्न हो जाती है। 2. तकनीकी भाषा का प्रयोग (Use of Technical Language) –कुछ तकनीकी व विशिष्ट समूह वर्ग के व्यक्ति; जैसे— डॉक्टर, इंजीनियर अपनी विशिष्ट भाषा-शैली का प्रयोग करते हैं। इस विशिष्ट भाषा का संचार इस शैली से अपरिचित सम्प्रेषणग्राही के लिए कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करता है क्योंकि इनका प्रसारण / संचारण व समझ प्रत्येक व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता। अत: तकनीकी भाषा/ विशिष्ट भाषा-शैली, सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करती है । 3. अस्पष्ट मान्यताएँ (Unclarified Assumptions) – प्रायः सम्प्रेषण इस मान्यता के आधार पर किया जाता है कि सम्प्रेषणग्राही सम्प्रेषण की आधारभूत पृष्ठभूमि से पूर्णत: परिचित है, परन्तु अधिकांश स्थितियों में यह मान्यता गलत सिद्ध हो जाती है। इसलिए सम्प्रेषणग्राही को सन्देश की विषय-वस्तु क्षेत्र के सम्बन्ध में जानकारी का पूर्वानुमान अत्यन्त आवश्यक है अर्थात् सम्प्रेषण क्रिया में सन्देश में निहित मान्यताओं की स्पष्टता सम्प्रेषणग्राही हेतु अत्यन्त अनिवार्य है। 4. अस्पष्ट पूर्व धारणाएँ (Uncleared Preconcepts) – प्रत्येक सन्देश प्राय: अस्पष्ट पूर्व धारणाओं से परिपूर्ण होता है जो कि सम्प्रेषण में बाधाएँ उत्पन्न करता है क्योंकि सम्प्रेषक सन्देश में समाहित समस्त बातों की विस्तृत जानकारी प्रेषकग्राही को नहीं देता बल्कि वह यह मानकर चलता है कि सन्देशग्राही इन बातों को स्वयं समझ पाने में सक्षम है।  5. त्रुटिपूर्ण शब्द में अभिव्यक्त सन्देश (Wrongly Expressed Message)अर्थहीन, निर्बल शब्दों में अभिव्यक्त सन्देश सदैव सम्प्रेषण का अर्थ बदल देता है। अतः ऐसी दशा में सदैव सन्देश की गलत व्याख्या की प्रबल सम्भावना रहती है। यह स्थिति तब अधिक जटिल हो जाती है, … Read more

Limitations of Formal Communication

औपचारिक सम्प्रेषण की सीमाएँ (Limitations of Formal Communication) औपचारिक सम्प्रेषण की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं- (1) लम्बवत् सम्प्रेषण भिन्न-भिन्न स्तरों से होता हुआ नीचे की ओर आता है, जिसमें किसी भी स्तर पर आवश्यक कारणों से सन्देश को संशोधित तथा परिवर्तित किया जा सकता है। लेकिन कई बार ऐसा करने से सन्देश का भाव तथा अर्थ बदल जाता है।  (2) लम्बवत् सम्प्रेषण के निर्णयन तथा नीतियों में अधीनस्थों की कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं होती। (2) इस सम्प्रेषण में आदेश तथा निर्देश विभिन्न स्तरों से होकर ऊपर से नीचे की ओर आते हैं, जिसके कारण सन्देश, आदेश तथा निर्देश के पहुँचने में देरी हो जाती है।  (4) इस सम्प्रेषण में गोपनीयता भंग होने तथा अनावश्यक विवरण के कारण सन्देश का वास्तविक स्वरूप ही बदल जाता है । (5) उच्चाधिकारी द्वारा पूर्ण आदेश अथवा सन्देश दिए जाने के कारण कार्यपरिणाम सन्तोषजनक नहीं रहता। अनौपचारिक सम्प्रेषण के लाभ (Advantages of Informal Communication) अनौपचारिक सम्प्रेषण के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

What do you mean by Revison ?

What do you mean by Revision ? पुनरीक्षण से क्या अभिप्राय है? उत्तर प्रथम प्रारूप तैयार करने के बाद उसे दुबारा पढ़कर उसमें संशोधन किए जाते हैं अर्थात् अनावश्यक सूचना को काट दिया जाता है तथा जो तथ्य प्रथम प्रारूप में लिखने से गए हैं, उन्हें यथास्थान जोड़ा जाता है। सन्देश के उद्देश्य, विषय-वस्तु तथा लेखन शब्दों की समीक्षा की जाती है। व्याकरण, विराम चिह्नों तथा वाक्यों की बनावट पर भी ध्यान दिया जाता है। संशोधन की यह प्रक्रिया पुनर्लेखन भी कहलाती है। अत: प्रथम प्रारूप को लिखने के पश्चात् यह आवश्यक है कि उसकी समीक्षा की जाए तथा उसमें वांछित सुधार किया जाए। कुछ लेखकों के अनुसार प्रथम प्रारूप में संशोधन के लिए उसे तीन बार निम्नांकित प्रकार से पढ़ने की योजना बनानी चाहिए – प्रथम संशोधन (First Revision ) – पहला संशोधन करते समय विषय-वस्तु अर्थात् पत्र लिखने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए (i) क्या पत्र संस्था तथा प्राप्त करने वाले की सभी आवश्यकताओं को पूरा करता है, (ii) क्या पत्र में आवश्यक सभी जानकारी दी गई हैं तथा दी गई जानकारी सत्य हैं, (iii) क्या सन्देश की भाषा स्पष्ट है, (iv) क्या पत्र में दी गई सूचना के समर्थन में पर्याप्त आँकड़े तथा तथ्य उपलब्ध है।  दूसरा संशोधन (Second Revision)-दूसरे संशोधन में यह देखना चाहिए कि पत्र का खाका (Layout) सही है तथा पत्र ठीक ढंग से व्यवस्थित है। अतः निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए (i) क्या पत्र का खाका वांछित उद्देश्यों को पूरा करने के साथ पाठक की स्थिति के अनुरूप है, (ii) पत्र में दिए गए विचारों में कोई बाधा तो नहीं है। विभिन्न पैराग्राफों के बीच भाषा का प्रवाह सही है, (ii) क्या सन्देश मैत्रीपूर्ण है तथा पक्षपातपूर्ण भाषा से मुक्त है, (iii) क्या पत्र, पढ़ने वाले को बताता है कि उसे क्या करना है । (iii) पत्र का खाका पढ़ने वाले को दी जाने वाली सभी सूचनाओं को उपलब्ध करा रहा है, (iv) पत्र के प्रारम्भिक एवं अन्तिम पैराग्राफ सही तथा प्रभावशाली हैं।  तीसरा संशोधन (Third Revision ) – इस अन्तिम संशोधन में पत्र की शैली एवं अभिव्यक्ति की जाँच करनी चाहिए। अतः निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए(i) क्या पत्र की भाषा एवं शैली स्पष्ट और आसान है,

Importance of Feedback

Importance of Feedback प्रतिपुष्टि का महत्त्व प्रतिपुष्टि सूचना के आदान-प्रदान तथा सन्देश – प्रेषक व सन्देशग्राही के मध्य समझ की पुष्टि करती है। जब सन्देश प्रेषक द्वारा सन्देशग्राही को सन्देश सम्प्रेषित किया जाता है तो सन्देश-प्रेषक उस सन्देश की प्रतिपुष्टि चाहता है, भले ही वह सन्देश के अनुकूल हो या प्रतिकूल । केवल जे० कुमार के अनुसार – – “Feedback is the receiver’s reaction to the message whether favourable or hostile.” प्रतिपुष्टि एक ऐसा दिशा-निर्देश होती है, जिसके द्वारा सन्देश प्रेषक अपने सन्देश को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से सम्प्रेषित करने का प्रयास करता है। जब सन्देशग्राही गृहीत सन्देश का अनुकूल या प्रतिकूल उत्तर देता है, तब प्रतिपुष्टि की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। सम्प्रेषण-प्रक्रिया को सफल बनाने में प्रतिपुष्टि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सन्देश भेजने के बाद यह जानना आवश्यक हो जाता है कि संग्राहकों ने उसे ग्रहण किया या नहीं। वास्तव में प्रतिपुष्टि द्विमार्गी पद्धति है (1) सम्प्रेषक से संग्राहक तक, ( 2 ) संग्राहक से सम्प्रेषक तक। प्रतिपुष्टि दो प्रकार की होती है – पहली धनात्मक तथा दूसरी ऋणात्मक सम्प्रेषित सन्देश उपयोगी सिद्ध हो रहा है या नहीं, सम्प्रेषण प्रक्रिया में यदि कोई कमी रह गई है तो उसे कहाँ और कैसे सुधारा जा सकता है— इन सभी आशंकाओं का उत्तर प्रतिपुष्टि से प्राप्त होता है। सम्प्रेषण का एकमार्गी होना सम्प्रेषण की सबसे बड़ी बाधा है। प्रतिपुष्टि सन्देश को श्रोतावर्ग की आवश्यकतानुसार लयबद्ध बनाती है। सम्प्रेषण की साख के लिए प्रतिपुष्टि अपरिहार्य है।

Suggestions to Remove the Barriers of Communication pdf

Suggestions to Remove the Barriers of Communication सम्प्रेषण की बाधाओं को दूर करने के लिए सुझाव सम्प्रेषण की बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत हैं— (1) सम्प्रेषक को सम्प्रेषण में सरल व स्पष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिए।  (2) सम्प्रेषक द्वारा प्रसारित किए जाने वाले सम्प्रेषण का समय उचित रूप से निर्धारित होना चाहिए। (3) परिस्थितियों के अनुगामी सम्प्रेषण के दिशा-निर्देश तय कर लेने चाहिए।  (4) सम्प्रेषक व प्राप्तकर्त्ता के बीच सही अनुकूलन होना आवश्यक है। दोनों के मध्य एकरूपता का होना भी अति महत्त्वपूर्ण है । (5) यदि सम्प्रेषण की क्रिया आमने-सामने हो रही है तो आशंका का निवारण तत्काल किया जाना सम्प्रेषण की बाधा को विकसित होने से रोक देता है। (6) सम्प्रेषण की अभिव्यक्ति तथा भाषा सम्प्रेषणग्राही के व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर अपनायी जानी चाहिए। (7) सन्देश के पश्चात् यदि आवश्यकतानुसार उसकी प्रतिपुष्टि की जा सके तो सम्प्रेषण की बाधा का सम्यक् निराकरण हो सकता है। (8) सम्प्रेषण की सम्पूर्ण क्रिया में श्रवणता का अति महत्त्वपूर्ण अवदान होता है, अतः सम्प्रेषण की बाधा से बचने के लिए श्रवणता के तत्त्व का उचित पालन किया जाना चाहिए। ( 9 ) प्रत्यक्ष सम्प्रेषण करते समय अन्य पक्ष के शारीरिक हाव-भाव का महत्त्व बढ़ जाता है। ऐसा करने से सम्प्रेषण में आने वाली बाधा को दूर किया जा सकता है अथवा बाधा के विकसित होने से पूर्व ही उसका निराकरण हो सकता है।

Methods of Survey

सर्वेक्षण की विधियाँ (Methods of Survey) 1.प्रश्नावली (Questionnaire)    2. साक्षात्कार (Interview ) प्रश्नावली ( Questionnaire) – सर्वेक्षण के इस ढंग में लिखित प्रश्नों की एक सूची जिसे प्रश्नावली कहते हैं, तैयार की जाती है जिसे लोगों को भरना होता है। प्रश्नावली में मूलत: तीन प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं (i) बन्द प्रश्न (Closed Questions ) – इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ अथवा ‘नहीं’ अर्थात् मात्र एक शब्द में दिया जाता है। उदाहरण के लिए “क्या आप विवाहित हैं?” “हाँ” अथवा “नहीं” (ii) खुले प्रश्न (Open Questions ) – खुले प्रश्न उत्तरदाता को खुलकर व्याख्या करने का अवसर देते हैं। ये प्रश्न प्रश्नकर्त्ता को अवसर प्रदान करते हैं कि वह समस्या की गहन छानबीन कर सके। जैसे “आपके विचार में ‘मनाली’ पर्यटन स्थल के रूप में कैसा स्थान है?” (iii) श्रेणीगत प्रश्न (Serieswise Questions ) – ये प्रश्न उत्तरदाता को यह अवसर देते हैं कि वह अपने उत्तर को श्रेणीबद्ध कर सके। उदाहरण के लिए कृपया, पढ़ाई के उद्देश्यों के बारे में अपनी राय क्रमवार दो। Methods of Survey 1.Questionnaire    2. Interview Questionnaire – In this method of survey a list of written questions … Read more