Industrial dispute act 1947 Notes Pdf In Hindi
औघोगिक संघर्ष अधिनियम, 1947
औद्योगिक विवाद से आशय उद्योग सम्बन्धी विवादों से है। जब नियोक्ताओं तथा श्रमिकों के बीच अथवा नियोक्ताओं तथा नियोक्ताओं के बीच अथवा श्रमिकों एवं श्रमिका के बीच कोई झगडा या मतभेद उठ खडा होता है तो यह औद्योगिक विवाद का रूप धारण कर लेता है। यह आधुनिक मशीनों व तकनीकों के प्रयोग द्वारा अत्याधिक पैमाने पर हो रहे उत्पादन की ही देन है। औद्योगिक विवाद अधिनियम,1947 की धारा 2 (K) के अनुसार, औद्योगिक विवाद से आशय नियोक्ताओं एवं नियोक्ताओं के बीच अथवा नियोक्तओं एवं श्रमिकों के बीच अथवा श्रमिकों एवं श्रमिकों के बीच हुए किसी विवाद अथवा मतभेद से है जो किसी व्यक्ति की नियुक्ति अथवा सेवा-मुक्ति अथवा रोजगार की शर्तो या श्रम की दशाओं से सम्बन्धित हो।” Industrial dispute act 1947
औघोगिक विवाद अग्रलिखित में से किसीसे भी सम्बन्धित हो सकता है-
(अ) किसी व्यक्ति की नियुक्ति अथवा सेवा मुक्ति के सम्बन्ध में, अथवा
(ब) रोजगार की शर्तों के सम्बन्ध में अथवा
(स) श्रम की दशाओं के सम्बन्ध में
केस लाँ : ट्रेम्यूलर मोटर्स लि. बनाम मुम्बई ओटोमोबाइल्स कर्मचारी संघ के विवाद में यह निर्णय दिया गया है कि यह आवश्यक नहीं है कि औद्योगिक विवाद कार्य में सलंग्न व्यक्ति द्वारा ही किया जाये अपितु कार्य से मुक्त हुआ श्रमिक भी इस अधिनियम के अन्तर्गत बाद प्रस्तुत कर सकता है।
औद्योगिक विवादों के कारण
Causes of Industrial Disputes
यदि वास्तव में देखा जाय तो औद्योगिक विवाद आधुनिक पूँजीवाद प्रथा की ही देन है। जैसे-जैसे उत्पादन का आकार बढ़ता गया, पूँजीवादी प्रथा पनपती गई और श्रमिकों का शोषण बढ़ता गया, वैसे-वैसे श्रमिकों द्वारा इसका विरोध किये जाने पर औद्योगिक विवाद उठते रहे। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से औद्योगिक विवाद के कारणों को हम निम्न चार भागों में विभाजित कर सकते हैं–(I) आर्थिक कारण,
(II) राजनैतिक कारण,
(III) प्रबन्ध सम्बन्धी कारण एवं
(IV) अन्य कारण ।
आर्थिक कारण
Economic Causes
(1) कम मजदूरी (Low waycs)—
जिन उद्योगों में श्रमिकों की मजदूरी की दर इतनी कम होती है कि उन्हें अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं तक की पूर्ति करना दुर्लभ हो औद्योगिक संघर्ष अधिनियम 1947 24 ‘जाता है, वे अपनी मजदूरी की दर बढ़वाने के लिए हड़ताल का सहारा लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप औद्योगिक विवाद उठखड़ाहोता है।
(2) जुर्माने तथा काम से हटाना –
कभी-कभी नियोक्ताअनुचित रूप से श्रमिकों पर आर्थिक जुर्माने कर देते हैं अथवा उन्हें नौकरी से निकाल देते हैं । इसके विरोध में श्रमिक हड़ताल कर देते हैं । इस कारण औद्योगिक विवाद उठ खड़ा होता है ।
(3) बोनस तथा महँगाई-भत्ते की माँग (Demond of bonus and dearness allowances)—सभी जानते हैं कि भारत में सभी वस्तुओं के मूल्यों में दिनों-दिन द्रुत गति से वृद्धि हो रही है । इस कमर-तोड़ महँगाई का सबसे भीषण प्रभाव श्रमिकों पर पड़ता है, अतः वे बोनस एवं महँगाई में वृद्धि की माँग करते हैं। माँग की पूर्ति न होने पर श्रमिक हड़ताल का सहारा लेते हैं. इससे औद्योगिक विवाद बढता है । यह सन्तोष का विषय है कि हाल में ही भारत सरकार ने यह निर्णय लिया है कि चाहे कारखाने में लाभ हो या हानि, श्रमिकों को मजदूरी का 8.3% भाग बोनस के रूप में अनिवार्य रूप में दिया जायेगा। यह विवादों को रोकने के लिये है ।
(4) कार्य की असन्तोषजनक दशायें (Unreasonable working conditions) –
अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उद्योगपति कारखाना अधिनियम की व्यवस्थाओं को लागू करने में आना-कानी करते हैं । अतः श्रमिक कार्य की दशाओंमें सुधार करने एवं कारखाना अधिनियम की अन्य व्यवस्थाओं को लागू करने हेतु हड़ताल का सहारा लेते हैं।
(5) वैज्ञानिक प्रबन्ध एवं विवेकीकरण की योजनाओं का विरोध (Protest of scintific management and pahialisation plans)-
कारखानों में वैज्ञानिक प्रबन्ध एवं विवेकीकरण की योजनाओं के लागू होने से शुरू में श्रमिकों की छंटनी होना स्वाभाविक है। इसके विरोध में श्रमिक हड़तालें करते हैं । उदाहरण के लिए, सन् 1955 में कानपुर के सूती-वस्त्र मिलों में विवेकीकरण की योजनाओं के लागू होने के विरोध में श्रमिकों ने 80 दिन की हडताल की थी।
(6) भर्ती की दूषित पद्धति का होना (Defective policy of recrvitment of workers)-
औद्योगिक विवाद का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण कारखानों में श्रमिकों की भर्ती की दूषित पद्धति का होना है । श्रमिकों की भर्ती ठेकेदारों,मिस्त्रियों, आदि मध्यस्थों द्वारा होती है। ये श्रमिकों से घूस लेते हैं तथा मनचाहे ढंग से शोषण करते हैं। अतः इनके दर्व्यवहारों तथा शोषण करने की प्रवत्ति से परेशान होकर श्रमिक हड़ताल करते हैं।
(7) छुट्टियाँ एवं कार्य के घण्टे (Holidays and working hours)
कई बार नियोक्ता द्वारा श्रमिकों को उनकी छुट्टियां न देने अथवा-निर्धारित घण्टों से अधिक घण्टों तक काम लेने के कारण भी औद्योगिक विवाद उठ खड़े होते हैं।
(8) छटनी (Retrenchmeat)-
कार्य भार के कम हो जाने, उद्योग निरन्तर हानि पर चलने अथवा अन्य किसी कारण से नियोक्ता द्वारा श्रमिकों की छंटनी की जाती है जिसके कारण भी औद्योगिक विवाद उठ खड़े होते हैं।
राजनैतिक कारण
Political Causes
दलगत राजनीति (Politics)-
यह बड़े खेद का विषय है कि भारत में श्रमिकों एवं श्रम-संघों का नेतृत्व गैर-श्रमिकों अथवा दलगत राजनीतिक दलों के हाथों में है । कुछ पर काँग्रेस
औद्योगिक अधिनियम, 25 का, कुछ पर साम्यवादियों का तथा कुछ समाजवादियों का प्रभुत्व है। ये दल अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए श्रमिकों को बहकाते हैं और उनकी भावनाओं को उधारकर उनसे मनमाने ढंग से हड़ताल आदि कराते हैं।
- श्रम-संघ आन्दोलन (Trade union movement)-
इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत में श्रम-संघों की स्थापना के बाद से ही औद्योगिक विवाद प्रारम्भ हुए हैं । इससे पहले औद्योगिक विवाद नाम मात्र के ही थे। उद्योगपति तथा श्रम-संघ दोनों ही शुरू से अपने को एक-दूसरे का दुश्मन मानकर चलते हैं।
- सहानुभूति (Smpathy)–
कभी-कभी एक औद्योगिक उपक्रम के श्रमिक किसी अन्य औद्योगिक उपक्रम अथवा उपक्रम के श्रमिकों द्वारा की गई हड़ताल की सहानुभूति में अपने यहाँ भी हड़ताल कर देते हैं । इस प्रकार धीरे-धीरे यह एक बड़े औद्योगिक विवाद का रूप धारण कर लेता है।
- सरकारी नीति के विरोध में (Agaisnt the govt. policiyes)-
यदि श्रमिक सरकार द्वारा घोषित किसी नीति अथवा नियम को अपने हितों के प्रतिकूल समझते हैं तो वे तुरन्त अपना विरोध प्रकट करने के लिए हड़तालों का सहारा लेते हैं, और इस प्रकार औद्योगिक विवाद उठ खड़ा होता है।
- किसी श्रमिक नेता की मृत्यु अथवा गिरफ्तारी के विरोध में (Againest the death or arres labour leader)—
कभी-कभी देश के श्रम-संध के किसी बड़े नेता की मृत्यु अथवा गिरफ्तारी होने पर औद्योगिक विवाद उठ खड़े होते हैं। भारतीय श्रम-संघ आन्दोलन ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।
- श्रम संघों की मान्यता सम्बन्धी प्रकरण (Affairs to trade union affiliation)-
उद्योगों में स्थापित श्रम-संघ उद्योगपतियों पर मान्यता देने के लिए दबाव डालते हैं। जब उद्योगपति उन्हें मान्यता देने से इन्कार कर देते हैं तो औद्योगिक विवाद उठ खडे होते हैं। यही नहीं कभी-कभी किसी एक ही बड़ी औद्योगिक इकाई में एक से अधिक श्रम-संघ स्थापित हो जाते हैं तथा उद्योगपति पर उन्हें मान्यता दिये जाने पर दबाव डालते हैं। जब उद्योगपति उन्हें मान्यता देने से इन्कार कर देते हैं अथवा किसी एक को मान्यता देते हैं तथा शेष को इन्कार कर देते हैं तो भी औद्योगिक विवाद उठ खड़े होते हैं।
प्रबन्ध सम्बन्धी कारण
Managerial Causes
(1) प्रबन्धकों का श्रमिकों के साथ दुर्व्यवहार होना (Under behaviour of management)-
प्रवन्धक विभिन्न तरीकों से श्रमिकों को परेशान करते हैं एवं उनके साथ दुव्यवहार करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप भी औद्योगिक विवाद उठ खड़े होते हैं।
(2) असन्तोष की भावना (Unsafis factory concepts)–
कभी-कभी नियोक्ताओं कई एस कदम उठाये जाते हैं (जैसे- अवकाश के दिनों में कमी करना, नौकरी में अस्थिरता खना,श्रमिकों की छंटनी करना, तालाबन्दी करना तथा श्रमिकों से अधिक समय तक कार्य आदि) जिसके कारण श्रमिकों में असन्तोष की भावना जागृत होती है। परिणामस्वरूप औद्योगिक विवाद उत्पन्न हो जाते है ।
औद्योगिक संघर्ष अधिनियम 1947 26 एवं अनभिज्ञ होते हैं। वे अपनी अच्छाई-बुराई को स्वयं नहीं सोच पाते हैं। परिणामस्वरूप वे कुछ स्वार्थी व्यक्तियों के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं जो उनमें मिल-मालिकों के प्रति कटुता एवं वैमनस्य की भावना को जाग्रत करते हैं और हड़ताल कराकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
(4) प्रबन्ध तथा लाभों में हिस्सा पाने के लिए (Get the share of management and profit)-
आज का श्रमिक एक जागरुक श्रमिक है, अत: वह अपनी मजदूरी के अतिरिक्त उद्योग के लाभों में से भी हिस्सा चाहता है । जब उद्योगपतियों द्वारा उनका विरोध होता है, तब श्रमिक वर्ग संगठित होकर हड़तालों का सहारा लेता है, जिससे औद्योगिक विवाद उठ खड़ा होता है।
(5) पर्यवेक्षकों का दृषित व्यवहार (Undue behaviour of supervisior)
श्रमिकों के कार्य की देखभाल करने के लिए जो पर्यवेक्षक नियुक्त किये जाते हैं, वे श्रमिकों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं, जिसके विरोध में श्रमिक हड़ताल का सहारा लेते हैं।
(6) भर्ती की दूषित प्रणाली (Defecive policy of recruitment)-
भारत में कारखानों में श्रमिकों की भर्ती की दूषित प्रणाली है। श्रमिकों की भर्ती जावर्स एवं ठेकेदारों के माध्यम से होती है,जो कि उनका मनमाने ढंग से शोषण करते हैं, अत: इसके विरोध में भी श्रमिक हड़ताल का सहारा लेते हैं और इस प्रकार औद्योगिक विवाद उठ खड़े होते हैं।
अन्य कारण
Other Causes
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त (i) श्रमिकों में फैल रही साम्यवादी विचार धारा; (ii) सहकारी नीति की अस्थिरता तथा सस्ते नेताओं की असामयिक घोषणाएँ; (iii) निरन्तर बढ़ता हुआ मूल्य-स्तर; (iv) श्रम-संघों के मध्य संघर्ष होना ; (v) मालिकों द्वारा श्रम-संघों को मान्यता नहीं दिया जाना ; (vi) प्रतिनिधित्व के लिए प्रतिस्पर्धी श्रम-संघों के मध्य श्रम-संघषों का होना, एवं (vii) श्रम-संघों के नेताओं को अपमानित करना, आदि के कारण भी औद्योगिक विवाद उठ खड़े होते हैं।
प्रश्न 2 भारत में औद्योगिक संघर्षों को रोकने और समझौता करने के सम्बन्ध में अधिनियम की व्याख्या कीजिये।
उत्तर- भारतीय औद्योगिक विवाद अधिनियम,1947 का एक उद्देश्य, औद्योगिक विवादों का निपटारा करने के लिये उपयुक्त तन्त्र की स्थापना करना है । इसके लिये यह आवश्यक है कि कार्य समिति, जाँच न्यायालय, श्रम न्यायालय, आदि का गठन किया जाय तथा उनको उचित अधिकार प्रदान किये जायें, ताकि वे प्रभावपूर्ण ढंग से अपने कार्य को सम्पन्न कर सकें। भारतीय औद्योगिक संघर्ष अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत औद्योगिक संघर्षों के निपटारे के लिये एक समझौता तन्त्र बनाया गया है जिसको दो भागों में रखा गया है
1: कारणों की जांच करने के लिये
2. न्याय प्रदान करने के लिये (A) औद्योगिक संघर्षो की जांच करने वाले यन्त्र
औघोगिक संघर्षों की जांच के लिये निम्नलिखित यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है
(1) कार्य समितियाँ गठित करना (Establishment of workshop committee)-
अधिनियम की धारा 3 के अनुसार उन सभी औद्योगिक संस्थाओं में जिसमें औद्योगिक अधिनियम / 27 या अधिक श्रमिक नियुक्त हों या पिछले 12 महीनों में किसी भी दिन नियुक्त किये गये तो ऐसे संस्थान के नियोक्ता को उपयुक्त सरकार सामान्य अथवा विशेष आदेश द्वारा एक मार्य समिति बनाने का आदेश दे सकती है । कार्य समिति नियामानसार ही बनाई जाती है जिसमें लायोजको व श्रमिकों के बराबर की संख्या में प्रतिनिधि होते हैं । कल सदस्यों की अधिकतम त्या 20 होगी। इनका सभापति एक निष्पक्ष व्यक्ति होता है। यदि उस उद्योग में भारतीय श्रम अधिनियम, 1926 के अन्तर्गत कोई रजिस्टर्ड श्रम संध हो तो श्रमिकों के प्रतिनिधि उसकी सलाह से चुने जायेंगे।
(2) समझौता अधिकारी-
अधिनियम की धारा 4 के अनुसार, “समझौता अधिकारी की नियुक्ति उपयुक्त सरकार द्वारा सरकारी राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशित करके जितनी संख्या में चाहे उतनी संख्या में समझौता अधिकारी नियुक्त कर सकती है तथा जिनका कर्त्तव्य औद्योगिक विवादों को निपटाना एवं मध्यस्थता को प्रोत्साहन देना होगा।
(3) समझौता बोर्ड (Board of Conciliation)-
अधिनियम की धारा 5 के अनुसार, सेवायोजक और श्रमिकों के पारस्परिक संघर्षों को निपटाने हेतु उपयुक्त सरकार गजट में घोषणा द्वारा तदर्थ आधार पर समझौता बोर्ड का गठन कर सकती है । इस बोर्ड में एक सभापति (स्वतन्त्र व्यक्ति) होता है तथा 2 तथा 4 अन्य सदस्य होते हैं । दोनों पक्षों के व्यक्ति पारस्परिक तर्क-वितर्क द्वारा समझौता कराने का प्रयत्न करते हैं और यदि समझौता नहीं हो पाता है। तो बोर्ड अपने निर्णय की एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करके,2 माह के अन्दर उच्च अधिकारियों को भेज देता है।
(4) जाँच न्यायालय (Court of Enquiry)-
अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत उपयुक्त सरकार यदि आवश्यक समझें तो विवाद के कारणों की जाँच के लिये जाँच न्यायालय की स्थापना कर सकती है। जाँच न्यायालय सामान्यत : एक सदस्यीय होते हैं। ये जाँच न्यायालय अपनी जाँच के उपरान्त जाँच सम्बन्धी तथ्यों सहित अपनी रिपोर्ट जाँच प्रारम्भ होने के 6 महीने के अन्दर सरकार को भेज देते हैं जिस पर सरकार अगली कार्यवाही करती है।
न्याय प्रदान करने वाले तन्त्र
Machinery to give Justice
न्याय प्रदान करने के लिये निम्नलिखित तन्त्रों का प्रयोग किया जाता है
(1) श्रम न्यायालय (Labour Court)-
अधिनियम की धारा 7 के अनुसार, उपयुक्त सरकार अनुसूची 2 में वर्णित विषयों से सम्बन्धित औद्योगिक विवाद पर निर्णय देने के लिये श्रम मायालय की नियक्ति कर सकती है। श्रम न्यायालय में नियुक्त किया जाने वाला केवल एक १५ व्यावत होता है । श्रम न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता सम्बन्धी शर्ते निम्नलिखित हैं
(i) वह किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हो अथवा रह चुका हो,या
(ii) वह कम से कम 3 वर्ष तक जिला न्यायाधीश या अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के पद पर कार्य कर चका हो.या
(III) वह दो वर्ष तक श्रम अपीलीय न्यायाधिकरण या अन्य न्यायाधिकरण का अध्यक्ष या सदस्य रहा हो, कर चुका हो,या
(iv) वह भारत में किसी न्यायालय में कम से कम 7 वर्ष तक न्यायाधीश पद पर कार्य
(४) यह किसी भी राज्य अधिनियम के अन्तर्गत गठित किसी श्रम न्यायालय में कम से औद्योगिक संघर्ष अधिनियम 1947 28 कम 5 वर्ष तक सभापति रह चुका हो ।
(2) औद्योगिक ट्रिब्यूनल (Industrial Tribunal)-
अधिनियम की धारा 7(अ) के अनुसार, उपयुक्त सरकार अनुसूची 2 या 3 में वर्णित विषयों के सम्बन्ध में निर्णय देने के लिये सरकारी गजट में अधिसूचना जारी करके औद्योगिक ट्रिब्यूनल की स्थापना कर सकती है। यह केवल एक सदस्यीय होगा। इसकी योग्यता की शर्ते निम्नलिखित हैं
(i) वह उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रह चुका हो, अथवा
(ii) वह कम से कम दो वर्ष तक औद्योगिक विवाद (अपीलेट ट्रिब्यूनल) अधिनियम, 1950 के अन्तर्गत नियुक्त श्रम अपीलेट ट्रिब्यूनल का सभापति रह चुका हो।
(3) राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल (National Tribunal)-
अधिनियम की धारा 7 (ब) के अनुसार, राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल की स्थापना, केन्द्रीय सरकार द्वारा राष्ट्रीय महत्व की समस्याओं को सुलझाने अथवा ऐसी समस्याओं को सुलझाने के लिये जिनसे एक से अधिक राज्य प्रभावित होते हैं,की जाती है । इसमें एक ही व्यक्ति की नियुक्ति की जाती है । उसकी योग्यता इस प्रकार होनी चाहिये- .
(i) वह उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हो अथवा रह चुका हो,
(ii) वह कम से कम 2 वर्ष तक औद्योगिक विवाद (अपीलेट-ट्रिब्यनल) अधिनियम, 1950 के अन्तर्गत नियुक्त श्रम अपीलेट ट्रिब्यूनल का सभापति रह चुका हो।
(4) पंच-निर्णय (Arbitration)
अधिनियम की धारा 10 (A) के अनुसार, जहाँ कहीं औद्योगिक विवाद विद्यमान है या उत्पन्न होने की सम्भावना है और सेवायोजक तथा श्रमिक उसे पंच निर्णय हेतु सुपुर्द करने को सहमत होते हैं तो वे ऐसे विवाद किसी श्रम न्यायालय ट्रिब्यूनल या राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल को सौंपने के पूर्व किसी भी समय,एक लिखित समझौते द्वारा,उसे पंच निर्णय के लिये निर्देशित कर सकते हैं। ऐसा निर्देशन पंच निर्णय समझौते में निर्देशित पंच या पंचों के समक्ष किया जायेगा। संशोधित अधिनियम 1964 के अनुसार, यदि पंच निर्णय समझौते में पंचों की संख्या सम (2,4,6) हो तो,ऐसे समझौते में मध्यस्थ निर्णयक (Umpire) की नियुक्ति का प्रावधान है।
पंच निर्णय समझौता निर्धारित प्रारूप में होगा तथाउसमें पक्षकारों द्वारा निर्धारित ढंग से हस्ताक्षर किये जायेंगे। पंच निर्णय समझौते की एक प्रति उपयुक्त सरकार तथा समझौता अधिकारी को भेजी जायेगी। सरकार उसे एक महीने के भीतर गजट में प्रकाशित करेगी। पंच विवाद की जांच पडताल करने के उपरान्त अपना फैसला हस्ताक्षर कर उपयुक्त सरकार कोप्रस्तत करेंगे।
विवादों का निपटारा करने वाली शक्तियों के अधिकार
औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 11 के अनुसार समझौता अधिकारी, समझौता बोर्ड, श्रम न्यायालय, औद्योगिक ट्रिब्यूनल, राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल आदि को निम्नलिखित
औद्योगिक अधिनियम / 29 अधिकार दिये गये हैं .
विवादों का निपटारा करने वाली शक्त्यिों के अधिकार (Powers of Authoritics for the Settlements of Disputes)
औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 11 के अनुसार समझौता बोर्ड, श्रम न्यायालय, औद्योगिक ट्रिब्यूनल, राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल आदि को निम्नलिखित अधिकार दिये गये हैं
(1) संस्थान में प्रवेश करने का अधिकार (Powers to enter in the Institution)-
एक समझौताअधिकारी, बोर्ड अथवा न्यायालय के सदस्य को तथा श्रम न्यायालय,ट्रिब्यूनल या राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष को किसी औद्योगिक विवाद की जाँच करने के उद्देश्य से सूचना देने के वाद-विवाद से सम्बन्धित संस्थान के किसी भी भाग में प्रवेश करने का अधिकार है।
(2) दीवानी न्यायालय के अधिकार (Powers of Civil Court)-
इन्हें निम्नलिखित मामलों में दीवानी न्यायालय के समस्त अधिकार प्राप्त हैं
(i) किसी व्यक्ति की शपथ पर जाँच करना और उसे वैयक्तिक रूप में उपस्थित होने के लिये बाध्य करना।
(ii) प्रपत्रों व अन्य सामग्री को प्रस्तुत करने के लिये बाध्य करना।
(iii) गवाहों के बयान लेने के लिये कमीशन की नियुक्ति करना।
(iv) अन्य निश्चित मामलों में जिनके लिये उन्हें निर्धारित किया गया हो ।
(3) दस्तावेजों की जाँच का अधिकार (Power to Examine the Documents)-
समझौता अधिकारी को ऐसा कोई भी प्रलेख माँगने और देखने का अधिकार प्राप्त है जिसे वह औद्योगिक संघर्ष से सम्बन्धित समझौता हो या जिसको देखना वह निर्णय के लागू होने की जाँच के लिये या अन्य कर्त्तव्य पालन के लिये आवश्यक समझता हो । इस सम्बन्ध में उसे दीवानी न्यायालय के समस्त अधिकार प्राप्त हैं। …
(4) मूल्यांकनकर्ताओं की नियुक्ति करने का अधिकार (Power to Appoint the Valuers)-
एक न्यायालय,श्रम न्यायालय, औद्योगिक ट्रिब्यूनल या राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल को, यदि वे आवश्यक समझें यह अधिकार प्राप्त है कि वे विचाराधीन मामले में परामर्श देने के लिये एक या एक से अधिक मूल्यांककों की नियुक्ति कर सकते हैं।
(5) लोक सेवक का अधिकार (Power of Public Servant)-
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 के अनुसार सभी समझौता अधिकारियों,बोर्ड या न्यायालय के सदस्यों एवं श्रम न्यायालय, ट्रिब्यूनल या राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के अध्यक्षों को लोकसेवक माना जायेगा अतः उन्हें लोकसेवक के समस्त अधिकार प्राप्त हैं।
(6) व्यय भार की जिम्मेदारी डालने का अधिकार (Power of Imposing the Responsibility to Bear the Expenses)-
प्रस्तुत अधिनियम के अन्तर्गत चलायी गई कायवाहियों के व्यय का भार कौन और किन शर्तों के अन्तर्गत वहन करे, इसका निर्णन इन्हीं के द्वारा किया जायेगा।
विवादों का निपटारा करने वाली शक्तियों के कर्त्तव्य
Duties of Authorities or Settlement of Disputes
जाधागिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत विवादों का निपटारा करने वाली
औद्योगिक संघर्ष अधिनियम 194730 शक्तियों के निम्नलिखित कर्त्तव्यों की व्याख्या की गई है–
(1) समझौता अधिकारियों के कर्त्तव्य (Duties of Conciliation Authorities) —-
अधिनियम की धारा 12 के अनुसार समझौता अधिकारी के प्रमुख कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
(i) किसी औद्योगिक विवाद के उत्पन्न होने या उसकी आशंका होने पर निर्धारित आवश्यक कार्यवाही करना।
(ii) विवाद की अविलम्ब जाँच करके, विवाद से सम्बन्धित पक्षों में समझौता कराने का प्रयास करना।
(iii) समझौता हो जाने पर दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन (Memorandum) के साथ अपनी रिपोर्ट सरकार को भेजना।
(iv) यदि समझौता नहीं हुआ है तो सरकार के पास अपनी रिपोर्ट भेजना जिसमें विवाद के कारण तथ्य,समझौता हेतु किये गये प्रयासों का विवरण तथा समझौता न. हो सकने के कारणों पर प्रकाश डाला गया हो।
(2) समझौता बोर्ड के कर्त्तव्य (Duties of Conciliation Board)-
अधिनियम की धारा 13 के अनुसार समझौता बोर्ड के प्रमुख कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
(i) औद्योगिक विवाद में लिप्त पक्षकारों के मध्य समझौता कराने के प्रयास करना ।
(ii) विवाद के सम्बन्ध में जाँच करना और उचित कार्यवाही करना।
(iii) समझौता हो जाने पर दोनों पक्षकारों के हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन के साथ अपनी रिपोर्ट भेजना।
(iv) यदि समझौता नहीं हो पाया है तो सरकार के पास अपनी रिपोर्ट भेजना जिसमें विवाद के कारण, तथ्य, समझौता हेतु किये गये प्रयासों का विवरण तथा समझौता न हो सकने कारणों पर प्रकाश डाला गया हो ।
समझौता बोर्ड को अपनी रिपोर्ट दो माह के भीतर प्रस्तुत कर देनी चाहिये।
(3) जाँच न्यायालय के कर्त्तव्य (Duties of Court of Enquiry)-
अधिनियम की धारा 14 के अनुसार, यदि कोई मामला जाँच न्यायालय को निर्देशित किया गया है तो जाँच न्यायालय के निम्न कर्त्तव्य होंगे
(i) प्रस्तुत किये गये विषय की गहन जाँच करना ।
(ii) विवाद सौंपने के 6 माह के अन्दर अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत करना।
(4) श्रम न्यायालय, ट्रिब्यूनल व राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के कर्तव्य (Duties of Labour Court. Tribunal and National Tribunal)-
अधिनियम की धारा 15 के अनुसार. इनके निम्नलिखित कर्त्तव्य होंगे
(i) कार्यवाहियों को यथाशीघ्र सम्पन्न करना,
(ii) उनकी समाप्ति पर अपना निर्णय यथाशीघ्र सरकार के पास भेजना।
हड़ताल का अर्थ
Meaning of Strike
सरल शब्दों में हड़ताल’ से आशय किसी उद्योग में नियोजित कर्मचारी वर्ग द्वारा एक , मिलकर कार्य बन्द कर देना अथवा समन्वित होकर कार्य स्वीकार करने से मना कर देना है ।
औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 2(Q) के अनुसार- ‘हड़ताल’ से तात्पर्य (1) किसी उद्योग में नियुक्त कर्मचारियों द्वारा सामूहिक रूप से कार्य बन्द कर देना या (ii) श्रमिका द्वारा कार्य निरन्तर जारी रखने से इन्कार करने या सामहिक रूप से रोजगार स्वीकार करने से इन्कार कर देने से है।
हड़ताल के लक्षण
Characteristics of Strikes
हड़ताल के निम्नलिखित लक्षण होते हैं
- श्रमिकों द्वारा हड़ताल किसी उद्योग में की जानी चाहिये।
- दोनों पक्षकार श्रमिक एवं नियोक्ता होने चाहियें।।
- हड़ताल सभी श्रमिकों अथवा उनके समूह द्वारा की जानी चाहिये ।
- कार्य सामूहिक अथवा संयुक्त रूप से बन्द होना चाहिये ।
- हड़ताल के लिये निश्चित उद्देश्य होना चाहिये।
- हड़ताल किसी साधारण समझौते के अन्तर्गत होनी चाहिये।
- हड़ताल के लिये कार्य से अनुपस्थित होना आवश्यक नहीं है।
- कार्य बन्द होना चाहिये।
- हड़ताल उसी औद्योगिक संस्थान में होनी चाहियें जहाँ श्रमिक सामान्य उद्देश्य रखते हैं एवं कार्यरत् हैं।
हड़ताल के स्वरूप (Forms of Strike)-
हड़ताल के निम्न स्वरूप हो सकते हैं-
- सामान्य हड़ताल
- ‘विलम्ब करो’ हड़ताल,
- ‘धीमे काम करो’ हड़ताल,
- भूख हड़ताल,
- सहानुभूति हड़ताल,
- प्रतीक हड़ताल।
तालाबन्दी का अर्थ (Meaning of Lockout)
सामान्य शब्दों में तालाबन्दी से आशय किसी उद्योग में सेवायोजक द्वारा कार्य के स्थान को बन्द कर देने अथवा काम पर आने वाले कर्मचारी वर्ग को काम न देने से है।
औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 2 (L) के अनुसार, किसी सेवायोजक द्वारा नौकरी के स्थान को बन्द कर देने या कार्य के लिये नियुक्त व्यक्तियों की किसी संख्या को काम देने से मना कर देना तालाबन्दी कहलाती है।” तालाबन्दी को कारखाना बन्दी भी कहते हैं।
निम्नलिखित तालाबन्दी नहीं हैं
- सदेव के लिये संस्थान बन्द किया जाना।
(ii) नई मशीनों की स्थापना के कारण विलम्ब होना।
(iii) अनियन्त्रित परिस्थितियों के कारण कार्य बन्द हो जाना।
(iv) अवेध हड़ताल के कारण तालाबन्दी
संघर्ष अधिनियम 19.1 34 कार्य देने में असमर्थता के लक्षण
Characteristics of Lay-OFF
(i) सम्बन्धित श्रमिक का नाम औद्योगिक संस्थान के हाजिरी रजिस्टर में अंकित होना आवश्यक है।
(ii) सम्बन्धित श्रमिक की छटनी न की गयी हो।
(iii) कार्य देने में असमर्थता अस्थायी होती है, स्थायी नहीं।
(iv) कार्य देने में असमर्थता किन्हीं विशिष्ट कारणों से होती है, जैसे-कोयले की कमी, शक्ति की कमी, कच्चे माल की कमी, अत्यधिक स्टॉक का जमा हो जाना, मशीन की टूट-फूट अथवा कोई विशिष्ट कारण।
(v) नियोक्ता श्रमिक को काम देने में असमर्थ अथवा अयोग्य रहता है।
काम देने की असमर्थता के कारण
Cause of Lay-Off
निम्नलिखित दशाओं में काम देने से मना किया जा सकता है
- बिजली, पानी एवं शक्ति की कमी,
- सरकारी हस्तक्षेप,
- कच्चे माल का अभाव,
- प्राकृतिक घटना का घटित होना,
- मशीनों का क्षतिग्रस्त हो जाना,
- माल का अत्यधिक संग्रह हो जाना।
कार्य देने में असमर्थता सदैव अस्थायी होती है । सन् 1976 में हुये एक संशोधन 25 (M) के अनुसार,कोई भी श्रमिक जिसका नाम संस्थान के उपस्थिति रजिस्टर में अंकित है, बिना ऐसे अधिकारी की आज्ञा के कार्य से नहीं लौटाया जैसा कि सरकारी गजट में ज्ञापन द्वारा उपयक्त सरकार ने निर्दिष्ट किया हो, बशर्ते काम से लौटाने का कारण प्राकृतिक विपत्ति या शक्ति की कमी नहीं है।
छंटनी से आशय
Meaning of Retreachment
छटनी से आशय सेवायोजक द्वारा श्रमिक की सेवायें समाप्त कर देने से है। औद्योगिक विवाद संशोधित अधिनियम, 1984 की धारा 2 के अनुसार, छटनी’ से आशय अनुशासन सम्बन्धी दण्ड के अतिरिक्त किसी श्रमिक की नियोक्ता द्वारा सेवा समाप्त करने से है परन्तु निम्नलिखित दशाओं में सेवा की समाप्ति छटनी नहीं हैं
(i) किसी श्रमिक द्वारा स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण किया जाना।
(ii) सेवायोजक के साथ किये गये रोजगार सम्बन्धी अनुबन्ध के अन्तर्गत आयु सीमा समाप्त होने पर अवकाश ग्रहण।
(iii) यदि नियुक्ति किसी अनुबन्ध के अन्तर्गत एक निश्चित अवधि के लिये की गई हो तथा उस अवधि का नवीनीकरण नहीं हुआ हो तो उस अवधि के समाप्त होने से सेवा समाप्त कर देने पर।
(iv) अनुबन्ध की शर्तों के अनुसार अनुबन्ध समाप्त करके सेवा समाप्त करने पर।
(v) लगातार बुरे स्वास्थ्य के कारण श्रमिक की सेवा समाप्ति ।
औद्योगिक अधिनिया 35 .छटनी के कारण (Causes of Retreachment)
छटनी के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं –
- आवश्यकता से अधिक कर्मचारियों का होना ।
- कच्चे माल की कमी।
- यन्त्रों का आधुनिकीकरण । . (iv) किसी विशिष्ट इकाई का बन्द हो जाना ।
- ले आँफ।
- निरन्तर हानि।
- शक्ति के साधनों का अभाव ।
काम देने में असमर्थता की दशा में श्रमिकों का क्षतिपूर्ति कराने का अधिकार
Right of Workmen for Compensation in Case of Lay-off
अधिनियम की धारा 25 (C) के अनुसार, यदि उस श्रमिक को जिसका नाम उपस्थिति रजिस्टर में दर्ज है,काम नहीं दिया जाता है तो सेवायोजक उसे काम न देने के दिनों के लिये (बीच की साप्ताहिक छुट्टियों को छोड़कर) मूल मजदूरी और महंगाई भत्ते का 50% क्षतिपूर्ति के रूप में देगा बशर्ते उस श्रमिक को उस सेवायोजक के आधीन कार्य करते हुये एक वर्ष हो गया है । फिर भी श्रमिक को क्षतिपूर्ति की राशि 12 माह की अवधि में 35 दिनों में अधिक नहीं दी जायेगी।
अधिनियम की धारा 25 (E) के अनुसार, निम्नलिखित दशाओं में श्रमिक को क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार नहीं होगा
(i) यदि कोई श्रमिक उसी औद्योगिक संस्थान में या उसी सेवायोजक के दूसरे संस्थान में जो पहले संस्थान से 5 मील से अधिक दूरी पर स्थित नहीं है, अपनी योग्यतानुसार दिये जाने वाले दूसरे काम को स्वीकार करने से इन्कार करता है,
(ii) वह दिन में कम से कम एक बार सामान्य काम के घंटों में निश्चित समय पर संस्थान में उपस्थित नहीं होता है, तथा
(iii) यदि उसी के किसी भाग के श्रमिकों की हड़ताल अथवा ‘धीरे कार्य करो’ की प्रवृत्ति के कारण उसे काम करने से मना किया गया है। .
छटनी से सम्बन्धित प्रावधान
Provisions Regarding Lay-off
अधिनियम की धारा 25 (F) के अनुसार, किसी भी श्रमिक को जो किसी भी उद्योग में किसी सेवायोजक के आधीन कम से कम एक वर्ष तक लगातार कार्य करता रहा हो, छटनी
अग्रलिखित शर्तों के अनुसार ही की जा सकती है
(i) श्रमिक को एक माह की लिखित सूचना दी जाये अथवा नोटिस काल के लिये मजदूरी का भुगतान अग्रिम कर दिया जाये ।
(ii) कर्मचारी को पूर्ण वर्ष की सेवाओं के लिये प्रति पूर्ण वर्ष 15 दिन का क्षतिपूर्ति का वेतन दिया जाये। औद्योगिक संघर्ष अधिनियम 1947 36
(iii) श्रमिक को नोटिस देने अथवा भुगतान करने की सूचना 3 दिन के अन्दर सरकार को भेज दी जाये।
जिस श्रमिक ने एक पूर्ण वर्ष में 40 दिन तक कार्य कर लिया हो, उसे एक वर्ष की सेवा माना जायेगा।
उपक्रम के हस्तांतरण की दशा में श्रमिकों को क्षतिपूर्ति (Compensation to Workers in Case of Transfer to Undertaking)
अधिनियम की धारा 25 (2 F) के अनुसार, “ऐसे संस्थानों में जहाँ स्वामित्व अथवा प्रबन्ध हस्तान्तरित किया गया है,प्रत्येक व्यक्ति जो निरन्तर रोजगार में है तथा इस हस्तान्तरण से पूर्ण एक वर्ष तक कार्य कर चुका है,तो वह नियमानुसार सूचना तथा क्षतिपूर्ति पाने का अधिकारी होगा। श्रमिक को निम्नांकित दशाओं में क्षतिपूर्ति प्राप्त नहीं होगी
- यदि उसकी सेवायें बीच में कहीं खण्डित हो चुकी हैं।
(ii) वर्तमान रोजगार में पहले ही अपेक्षा उसकी सेवाओं की शर्ते एवं दशायें बुरी नहीं
(iii) हस्तान्तरण प्राप्त करने वाला सेवायोजक हस्तान्तरण की शर्तों के अनुसार श्रमिकों की छंटनी के समय क्षतिपूर्ति देने के लिये उत्तरदायी है।
संस्थान बन्द करने की दशा में श्रमिकों को क्षतिपूर्ति (Compensation to Workers in Case of Windingup of Undertaking)
अधिनियम की धारा 25 (2F) के अनुसार,यदि कोई संस्थान बन्द होने वाला हो तो ऐसा प्रत्येक श्रमिक जिसने कम से कम एक वर्ष तक काम कर लिया हो, धारा 25 (F) के अनुसार सूचना और क्षतिपूर्ति पाने का अधिकारी होगा परन्तु यदि संस्थान ऐसा अनिवार्य कारणों से जिन पर सेवायोजक का कोई नियन्त्रण नहीं है, बन्द होता है,तो श्रमिक को मिलने वाली क्षतिपूर्ति अधिक से अधिक 6 माह की औसत मजदूरी के बराबर होगी।
छटनी की क्षतिपूर्ति
Procedure of Retrenchment
अधिनियम की धारा 25 (G)के अनुसार, यदि छंटनी के सम्बन्ध में श्रमिकों व सेवायोजकों के बीच कोई समझौता न हुआ हो तो सेवायोजक सबसे बाद में आने वाले व्यक्ति की छंटनी सबसे पहले करेगा। यदि सेवायोजक किसी दूसरे व्यक्ति की छंटनी करता है तो उसे लिखित कारण देने होंगे।
छंटनी किये गये श्रमिकों की पुनर्नियुक्ति
Re-employment of Retreached Workers
अधिनियम की धारा 25 (H) के अनुसार, छंटनी के उपरान्त जब कभी रिक्त स्थान घोषित किये जायेंगे तो सेवायोजक छंटनी किये गये श्रमिकों को पुनः विनियोजित करने में प्राथमिकता प्रदान करेंगे।
औद्योगिक अधिनियम 37 औद्योगिक विवाद अधिनियम,
1947 में सन् 1976 में महत्वपूर्ण संशोधन करके सोगिक विवाद (संशोधन) अधिनियम, 1976 पारित हुआ जो 16 फरवरी, 1976 से लागू जसके द्वारा अधिनियम में एक नया अध्याय V-B जोड़ा गया है जिसमें धाराएं 25 K से तक हैं। इन धाराओं के अन्तर्गत कुछ विशिष्ट संस्थानों में श्रमिकों को कार्य देने से भाता छटनी तथा कामबन्दी को प्रतिबन्धित कर दिया गया है । प्रस्तुत अध्याय में सन DPS तथा 1983 में दिये गये संशोधनों से भी यथास्थान सम्मिलित कर दिया गया है । सन् 1007 में किये गये संशोधनों को एक अगस्त, 1984 से लागू किया गया था। इनके परिणामस्वरूप अब नियोक्ता बिना उपयुक्त सरकार की पूर्व अनुमति के कुछ विशिष्ट संस्थाओं में कार्य देने में असमर्थता,छंटनी तथा कामबन्दी नहीं कर सकेगा। तथा इसकी वजह से श्रमिकों का मनोबल ऊँचा उठेगा तथा उत्पादन में वृद्धि होगी एवं देश में औद्योगिक शान्ति स्थापित होगी।
औद्योगिक विवाद (संशोधन) अधिनियम कहाँ लागू होगा :
यह प्रावधान उन औद्योगिक संस्थाओं पर लागू होंगे जिनमें पिछले 12 महीनों में प्रतिदिन औसतन कम से कम 100 श्रमिक कार्यरत रहे हों किन्तु ये प्रावधान निम्नलिखित संस्थानों पर लागू नहीं होंगे
(अ) मौसमी प्रकृति (Seasonal Character) के औद्योगिक संस्थान: अथवा (ब) जिनमें एक-एक कर (Internittently) होता है (अर्थात् कार्य निरन्तर नहीं होता है)
विवाद की दशा में उपयुक्त सरकार का निर्णय-जहाँ पर विवाद उत्पन्न हो जाय कि वह संस्थान मौसमी प्रकृति का अथवा रुक-रुक कार्य करने वाला है या नहीं। वहाँ इस सम्बन्ध में उपयुक्त सरकार का निर्णय ही अन्तिम होगा।
जबरन छुटटी का निषेध यापूर्व की शर्ते
(1) निर्दिष्ट अधिकारी से पूर्व अनुमति प्राप्त करना (Get the pre permission of sepeified officer)-
औद्योगिक संस्थान में कार्य करने वाले किसी भी ऐसे श्रमिक को जिसका नाम संस्थान के हाजरी रजिस्टर में लिखा हो बिना निर्दिष्ट अधिकारी की पूर्व अनुमति क कार्य देने में असमर्थता अथवा जबरी छुट्टी नहीं की जा सकेगी। किन्तु यदि शक्ति की कमी अथवा प्राकृतिक संकट के समय अथवा खान के सम्बन्ध में आग, बाढ़ अथवा बहुत अधिक अवलनशाल गैस के कारण, ऐसा करना पड़े तो यह अपवाद होगा। किन्तु यदि खदान के म जबरी छुट्टी किसी विद्यत शक्ति की कमी आग.बाढ अत्यधिक ज्वलनशील गैस या दक पदार्थ के कारण की गई हो तो ऐसी दशा में भी पूर्व लिखित अनुमति लेना आवश्यक होगा
निधारित प्रारुप पर (Sepeified format)-
नियोक्ता द्वारा, अनुमति प्राप्त करने सायना-पत्र एक निर्धारित प्रारूप में निर्धारित अधिकारी को दिया जायेगा तथा उसमें काम क कारणों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जायेगा। इस प्रार्थना-पत्र की प्रतिलिपि (bimultaneouslv) सम्बन्धित श्रमिकों को भी प्रदान की जायेगी।
अवधि बढ़ाने के आवेदन (Applied of time limit bar)–
यदि किसी खान औद्योगिक संघर्ष अधिनियम 19. 38 में श्रमिकों की बदली या आकस्मिक श्रमिकों को छोडकर) उपधारा (1) म वा 7 कारणास (आग बाद गैस या विस्फोट) जबरी छड़ी की गई तो जबरी छड़ी प्रारम्भ हान । तिाच स 5) दिन के अन्दर उप-धारा (i) में निर्दिष्ट अधिकारी को नियोक्ता द्वारा यह आवेदन किया जा सकता है कि जबरी छुट्टी को अवधि बढ़ाई जाये । [ धारा 25-M(3)]
निर्धारित अधिकारी के अधिकार (Right of sepcified officer)
अक्त आवेदन-पत्र प्राप्त होने पर निर्धारित अधिकारी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह जानरचक पछताछ करने के पश्चात लिखित में कारण देते हए इस अनमति के लिए आवदन-पत्र का स्वीकार करे अथवा अस्वीकार कर दे। ऐसे आदेश की प्रतिलिपि नियोक्ता तथा सम्बन्धित कर्मचारी को देनी होगी। [ धारा 25-M (4)]
आवेदन-पत्र की तिथि से 60 दिन के अन्दर स्वीकृति अथवा स्वीकृति न होने पर (On acceptance and not acceptanec under 60 days applied data)-
यदि निर्दिष्ट अधिकारी उपर्युक्त आवेदन-पत्र की तिथि से 60 के अन्दर नियोक्ता को स्वीकृति या अस्वीकृति की सूचना नहीं देता है, तो 60 दिन की अवधि बीत जाने पर यह मान लिया जायेगा कि अनुमति दे दी गई है । [ धारा 25-M(5)।
जबरन छुट्टी से इन्कार करने पर (On refuse on probibition of lay-off)-
यदि उपुयक्त सरकार या निर्दिष्ट अधिकारी ने जबरी छुट्टी के लिये अनुमति देने से इन्कार कर दिया है तो यह अनुमति या इन्कारी सम्बन्धित सभी पक्षकारों पर बाध्य होगी और यह
आदेश ऐसे आदेश की तिथि से एक वर्ष तक प्रभावशील रहेगा। धारा 25-M (6)]
पुर्नविचार करना अथवा न्यायाधिकरण को सौंपा जाना (Handover o judicial or rethink)
उपर्युक्त सरकार अथवा निर्दिष्ट अधिकारी या तो स्वयं अथवा नियोक्ता किसी श्रमिक द्वारा आवेदन-पत्र देने पर जबरी छुट्टी देने की अनुमति या इन्कारी के आदेश पर पुर्नविचार कर सकते हैं अथवा न्यायाधिकरण को सौंप सकते हैं जो 30 दिन के अन्दर अपना निर्णय देगा। [धारा 25-M(7)]
निर्धारित अवधि में आवेदन न करने पर जबरी छुट्टी अवैध (Applied is not due time prohibition lay off ilegal)-
यदि जबरी छुट्टी की पूर्वानुमति के लिए आवेदन नहीं दिया गया है अथवा खनन संस्थाओं में निर्दिष्ट कारणों से जबरी छुट्टी अवैध मानी जायेगी । ऐसी स्थिति में जबरी छुट्टी किये गये श्रमिक को वे सभी लाभ प्राप्त करने का अधिकार होगा मानो कि उसकी जबरी छुट्टी नहीं की गई थी। धारा 25-M(8)]
छूट देने का अधिकार (Right of discount given)–
यदि अपवादजनक परिस्थितियों अथवा संस्थान में दुर्घटना होने अथवा नियोक्ता की मत्यु होने अथवा अन्य इसी प्रकार के कारणों से उपयुक्त सरकार सन्तुष्ट हो जाय तथा ऐसा करना उपयुक्त समझे तो वह अपने आदेश द्वारा किसी भी संस्थान को एक निश्चित अवधि के लिए जबरी छुट्टी हेतु पूर्वानुमति प्राप्त करने सम्बन्धी प्रावधानों के पालन से छूट दे सकती है । धारा 25-M(9)।
धारा 25-C के प्रावधान लागू होना (Provision follow to section 25(c))-
धारा 25:C के प्रावधान (काम से इन्कारी की क्षतिपूर्ति की राशि छंटनी पर दी जाने वाली क्षतिपूर्ति में से कम करने सम्बन्धी प्रावधान को छोडकर) इस धारा में संदर्भित काम देने से इन्कारी के लिए भी लागू होंगे। [ धारा 25-M(10)]
औद्योगिक अधिनिया: 39 श्रमिकों की छंटनी से पूर्व की शर्ते (Conditions Precedent to Retrenchment of Workmen) [धारा 25-N]
(1) किसी भी औद्योगिक संस्थान जिसके लिए यह अध्याय लागू होता है, में नियुक्त कोई श्रमिक, जोकि किसी नियोक्ता के आधीन कम-से-कम 1 वर्ष की निरन्तर सेवा में रहा है,उस, नियोक्ता द्वारा उसकी छंटनी केवल निम्नलिखित शर्तों के आधीन की जा सकती है
(अ) श्रमिक की छंटनी के कारणों को उल्लिखित करते हुए सूचना दे दी गई है तथा सूचना को अवधि बीत गई है, या श्रमिक को सूचना की अविध के लिए मजदूरी का भुगतान कर दिया गया है; तथा
(ब) आवेदन-पत्र द्वारा उपयुक्त सरकार या निर्दिष्ट अधिकारी की पूर्व आज्ञा प्राप्त कर ली गई है। (2) उपधारा (1) के आधीन आज्ञा के लिए आवेदन-पत्र नियोक्ता द्वारा उल्लिखित रूप में छंटनी के कारणों को स्पष्ट रूप में उल्लिखित करते हुए दिया जायेगा तथा उसकी एक प्रतिलिपि उसी समय सम्बन्धित श्रमिक को भी दी जायेगी।
(3) जहाँ उपधारा (1) के आधीन आज्ञा के लिए आवेदन-पत्र दिया गया है, उपयुक्त सरकार या निर्दिष्ट अधिकारी जाँच करने के बाद तथा सम्बन्धित पक्षकारों को सुने जाने का अवसर देने के बाद, आदेश द्वारा ऐसी आज्ञा के लिए स्वीकृति या अस्वीकृति प्रदान कर सकती
(4) जहाँ उपधारा (1) के आधीन आज्ञा के लिए आवेदन-पत्र दिया गया है तथा उपयुक्त सरकार या निर्दिष्ट अधिकारी आवेदन-पत्र दिये जाने की तिथि से 60 दिन के भीतर नियोक्ता को आदेश का संवहन नहीं करती,तो ऐसी अवधि बीत जाने का यह माना जायेगा कि आज्ञा स्वीकार कर ली गई है !
(5) उपयुक्त सरकार या निर्दिष्ट अधिकारी का आदेश उपधारा (6) की व्यवस्थाओं के आधीन अन्तिम होगा तथा सभी सम्बन्धित पक्षकारों पर बाधित होगा तथा आदेश की तिथि से एक वर्ष के लिये कार्यशील रहेगा।
(6) उपयुक्त सरकार या निर्दिष्ट अधिकारी, स्वयं या नियोक्ता द्वारा दिये गये आवेदन पत्र पर आदेश पर पुर्नविचार कर सकता है या मामले को ट्रिब्यूनल को निर्देशित कर सकता
(7) जहाँ उपधारा (1) के आधीन आज्ञा के लिए आवेदन-पत्र नहीं दिया गया है,या जहाँ ऐसी आज्ञा अस्वीकार कर दी गई है, ऐसी छटनी अवैधानिक मानी जायेगी तथा श्रभिक सभी लाभों का अधिकारी होगा।
(8) उपयुक्त सरकार, यदि वइ इस बात से सन्तुष्ट है कि सस्थान में विशेष परिस्थितियों के कारण ऐसा किया जाना आवश्यक है, आदेश द्वारा निर्देशित कर सकती है कि उपधारा (1) की व्यवस्थायें ऐसे संस्थान के लिए निर्दिष्ट अवधि के लिए लागू न होंगी।
प्रश्न 1. औघोगिक संघर्ष अधिनियम, 1947 के क्या उद्देश्य हैं।
उत्तर-औद्योगिक संघर्ष अधिनियम, 1947 का मूल उद्देश्य श्रमिकों व सेवायोजकों के सम्बन्ध को मधुर बनाना है तथा साथ ही श्रेणी प्रणाली का निर्माण करना है जिससे विवादों का निवारण हो सके और श्रमिकों व प्रबन्धकों के मध्य मतभेद उत्पन्न न हो । इस अधिनियम के मूल उद्देश्यनिम्नलिखित हैं
(i) श्रमिक तथा सेवायोजक के मध्य सौहार्दपूर्ण तथा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना तथा उन्हें बनाये रखने का प्रयास करना। .
(ii) जाँच-पड़ताल, विवाद निवारण तथा समझौता करने के उद्देश्य से अधिक एवं सेवा योजक के बीच,श्रमिक एवं श्रमिक के बीच,सेवायोजक एवं सेवा योजक के बीच संगठन बनाने का अधिकार प्रदान करते हुए ऐसी प्रणाली का निर्माण करना जिससे वांछित उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। –
(iii) औद्योगिक बुराइयों, जैसे अवैधानिक हड़ताल एवं तालाबन्दियों पर रोकथाम लगाना
(iv) श्रमिकों की जबरन छुट्टी अथवा छटनी से उत्पन्न स्थिति से मुक्ति प्रदान करने का प्रयास करना।
(v) श्रमिकों को सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार प्रदान करना एवं उनको इसके लिये प्रोत्साहन देना।
(vi) श्रमिकों में अशान्ति के कारण औद्योगिक उत्पादन को न गिरने देना।
(vii) देश में औद्योगिक शान्ति स्थापित करना।
भारत में श्रम एपीलेट ट्रिब्यूनल ने एक विवाद में ‘निर्णय’ देते हुए औद्योगिक विवाद अधिनियम के निम्न उद्देश्य बताये थे
- नियोक्ताओं एवं श्रमिकों के बीच झगड़ों को दूर करना ।
- हड़तालें एवं तालेबन्दियां न होने देना।
- देश में औद्योगिक शक्ति की स्थापित करना।
(iv) श्रमिकों के मध्य अशान्ति के कारण देश के औद्येगिक उत्पादन में कमी न होने देना।
प्रश्न 2. कार्य समिति तथा समझौता मण्डल में अन्तर बताइये।
औद्योगिक संघर्ष अधिनियम 19.1 42 अत: औद्योगिक शक्ति भंग हो जाती है उत्पादन घटने लगता है, उत्पादन व्यय म निरन्तर वृद्धि होने लगती है तथाआय कम हो जाने से बेचारे श्रमिकों को भीषण आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इतना ही नहीं बाजार में प्रतिदिन काम आने वाली वस्तओं की कमी हो जाने से चार बाजारा का बोलबाला हो जाता हैं जिसके कारण उपभोक्ताओं को भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । संक्षेप में औद्योगिक विवादों के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण राष्ट्र की शान्ति. भग ही जाती है, जिसमें किसी से भी लाभ नहीं पहुँचता । आज हमारा राष्ट्र तेजी से औद्योगीकरण का तरफ बढ़ता चला जा रहा है. औद्योगिक शान्ति की सबसे अधिक आवश्यकता है। यह तभी सम्भव है जबकि औद्योगिक विवाद उत्पन्न न हो। अतः इन्हें रोकने के लिये ही हमारे देश में औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 पारित किया गया।
प्रश्न 4. औद्योगिक संघर्ष अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत निपटारे, और पंच निर्णय से बाध्य होने वाले व्यक्ति कौन-कौन से हैं?
उत्तर- निपटारे और पंचनिर्णय से बाध्य होने वाले पक्षकार (Parties are Bound by Settlement and Awards)
(1) आपसी ठहराव (Mutual Agreement)- समझौता कार्यवाही के दौरान ठहराव को छोड़कर सेवायोजकों एवं श्रमिकों के बीच हुये ठहराव के अन्तर्गत निपटारा, ठहराव के पकारों पर ही बन्धनकारकं होगा।
(2) पंच निर्णय (Awards)- एक पंच निर्णय जो प्रवर्तनशील हो गया हो, उन पक्षकारों के लिये बन्धनकारक होगा जिन्होंने एक ठहराव करके विवाद के निपटारे के लिये पंच या पंचों के सुपुर्द किया हो।
(3) निपटारे एवं निर्णय (Settlements and judgement)-समझौता अधिकारी या बोर्ड द्वारा किया गया निपटारा श्रम न्यायालय या औद्योगिक या राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल द्वारा किया गया निर्णय प्रवर्तनशील होने पर निम्नलिखित पक्षकारों या व्यक्तियों के लिये बन्धनकारक होगा
(i) औद्योगिक विवाद के सभी पक्षकार।।
(ii) वे सभी पक्षकार जिन्हें कार्यवाही के दौरान एक पक्षकार के रूप में उपस्थिति होने का आदेश दिया गया हो।
(iii) यदि पक्षकार एक नियोक्ता है तो उसके वंशजो, उत्तराधिकारियों या. अभिहस्ताकितों पर भी बन्धनकारक होगा।
(iv) यदि पक्षकार एक श्रमिक समुदाय है तो विवाद सुपुर्दगी के दिनांक से संस्थान या उसके किसी भाग में वाद में नियुक्त होने वाले व्यक्तियों पर भी बन्धनकारक होगा। निपाटारे या निर्णय का लाभ न केवल तात्कालिक विवाद के पक्षकारों अपितु बाद में . नियुक्त होने वाले सभी पक्षकारों को दिया गया है।
प्रश्न 5. जनोपयोगी सेवा शब्द की परिभाषा दीजिये । उसमें हड़ताल और तालाबन्दी पर क्या प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं।
उत्तर-औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (N) के अनुसार, जनोपयोगी सेवाओं से आशय निम्नलिखित सेवाओं से है
(i) रेलवे सेवा या वायु परिवहन सेवा जो यात्रियों या माल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाती ले जाती हो।
(1) औद्योगिक संस्थान का वह अनुभव । जसका काशीलता पा संस्थान अथवा प्रमिकों की सुरक्षा का भार हो।
(ii) डाक तार एवं टेलीफोन सेवायें।
(iii) कोई भी उद्योग जो जनता को जल,शक्ति एवं बिजली सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूर्ति करता हो।
(iv) सार्वजनिक स्वास्थ्य हेतु कोई भी मल वाहन या सफाई व्यवस्था ।
(v) प्रथम सूची में उल्लिखित कोई भी, उद्योग जो जनोपयोगी घोषित किया गया हो, ऐसे उद्योग के अन्तर्गत
(1) परिवहन, रेलवे के अतिरिक्त) जो यात्रियों अथवा सामान को जल या स्थल मार्ग से लाते एवं ले जाते हैं; (2) बैकिंग, (3) कोयला, (4) सीमेंट, (5) सूती वस्त्र उद्योग, (6) खाद्य सामग्रा, (7) लोहा एवं इस्पात,(8) प्रतिरक्षा संस्थान. (9) अस्पताल एवं चिकित्सालयों में होने वाली सेवायें, (10) अग्नि शमन सेवायें, (11) शासकीय टकसाल, (12) भारत सुरक्षा प्रस, (13) तांबा, सीसा, जस्ता,खदान, (14) तेल क्षेत्र सेवा, (15) बड़े बन्दरगाह की सेवा या उससे सम्बन्धित कार्य।
सरकार ऐसे उद्योगों की गजट में घोषित करती है। जनोपयोगी सेवाओं में हड़ताल पर प्रतिबन्ध (Restriction on Strike in Public Utility Services) अधिनियम की धारा 22(1) के अनुसार, जनोपयोगी सेवा में कार्यरत कोई भी व्यक्ति अनुबन्ध के भंग होने पर तब तक हड़ताल नहीं कर सकता जब तक कि
(i) हड़ताल करने से 6 सप्ताह पूर्व हड़ताल की सूचना सेवायोजकों को न दे दी गयी हो,
(ii) ऐसी सूचना देने के बाद 14 दिन समाप्त हो गये हों, या (iii) ऐसी किसी सूचना में निर्दिष्ट हड़ताल आरम्भ करने की तिथि समाप्त न हो गई हो,
(iv) किसी समझौता अधिकारी के समक्ष कोई समझौता कार्यवाही विचाराधीन हो तथा ऐसी समझौता कार्यवाही की समाप्ति के बाद कम से कम 7 दिन की अवधि समाप्त न हो जाये।
जनोपयोगी सेवा में तालाबन्दी पर प्रतिबन्ध (Restriction on
Lockout in Public Utility Services)
अधिनियम की धारा 22(2) के अनुसार- जनोपयोगी सेवा का संचालन करने वाला कोई भी व्यक्ति तब तक तालाबन्दी नहीं करेगा जब तक कि –
(i) तालाबन्दी करने के 6 माह पूर्व तालाबन्दी की सूचना श्रमिकों को न दे दी गयी हो,
(ii) ऐसी सूचना देने के बाद 14 दिन समाप्त हो गये हों,या
(iii) ऐसी सूचना में निर्दिष्ट तालाबन्दी प्रारम्भ करने की तिथि समाप्त न हो गयी हो,या
(iv) किसी समझौता अधिकारी के समक्ष कोई समझौता कार्यवाही विचाराधीन हो तथा एसा समझोता कार्यवाही की समाप्ति के बाद कम से कम 7 दिन की अवधि समाप्त न हो जाय ।
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