special audit meaning notes

Special Audit Meaning Notes

विशेष अंकेक्षण

बैंकिंग कम्पनी के खातों का अंकेक्षण

भारत में बैंकिंग कम्पनियाँ बैंकिंग रैगुलेशन एक्ट, 1949 के अनुसार स्थापित की जाती हैं। इस संविधान के अनुसार ही एक बैंकिंग कम्पनी अपने खाते तैयार करती है। एक बैंकिंग कम्पनी की पुस्तकों का अंकेक्षण एक चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट के द्वारा किया जाना चाहिए । बैंकिंग कम्पनी का चिट्ठा तथा लाभ-हानि खाता इस अधिनियम की धारा 29 के अन्तर्गत तैयार किये जाते हैं। ये धारा 30 के अनुसार अंकेक्षकों के द्वारा तैयार किये जायेंगे। अंकेक्षक की नियुक्ति, उसके कर्त्तव्य, दायित्व एवं अधिकार कम्पनी अधिनियम, 1956 के अनुसार निर्धारित होते हैं . .          

बैंकिंग कम्पनी एक्ट, 1970 के लागू हो जाने के पश्चात् जिसके अन्तर्गत 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था, अब बैंकिंग रैगुलेशन एक्ट, 1949 केवल अराष्ट्रीयकृत बैंकों (Non-Nationalised Banks) के काम-काज को नियन्त्रित करता है लेकिन उसके कुछ प्रावधान राष्ट्रीयकृत बैंकों के लिये भी लागू होते हैं।

अंकेक्षक को बैंक का अंकेक्षण करते समय निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए

सामान्य बातें

(1) अंकेक्षक को देखना चाहिए कि उसकी नियुक्ति कम्पनी अधिनियम, 1956 के अनुसार की गयी है या नहीं।

(2) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि उस कम्पनी का चिट्ठा एवं लाभ-हानि खाता बैंकिंग अधिनियम के अनुसार बनाए गए हैं अथवा नहीं।

(3) यदि बैंक में आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली अपनाई जा रही है तो उसकी जाँच सूक्ष्मता से की जानी चाहिए। साथ ही आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली की उपयुक्तता की जाँच भी करनी चाहिए।

आय की विभिन्न मदों की जाँच करना

(4) अंकेक्षक को देखना चाहिए कि बैंक द्वारा कितनी राशि का विनियोग किया गया है तथा विनियोग से बैंक को क्या आय प्राप्त होती है ? विनियोगों का मूल्यांकन सही ढंग से किया गया है या नहीं। साथ ही विनियोग से प्राप्त आय का सही लेखा किया गया है या नहीं।

(5) अंकेक्षक को प्रारम्भिक रोकड़ शेष की जाँच प्रत्यक्ष रूप से करनी चाहिए। साथ ही अन्य बैंकों में जमा रोकड़ के सम्बन्ध में उसे प्रमाण-पत्र ले लेना चाहिए।

(6) यदि वर्ष की अंतिम तिथियों पर बैंक द्वारा रोकड़ प्राप्त की गयी है किन्तु लेखे

नहीं हुए हैं तो ऐसे लेन-देनों की जाँच सावधानीपूर्वक की जानी चाहिए।

(7) बैंक द्वारा दिये गये ऋण पर प्राप्त ब्याज का अंकेक्षण (प्रमाणन) उपयुक्त प्रमाणकों के आधार पर किया जाना चाहिए तथा यह भी देखना चाहिए कि उनका लेखा सही ढंग से किया गया है या नहीं।

(8) बैंक द्वारा भुनाये गये बिलों का सत्यापन ध्यान पूर्वक करना चाहिए।

(9) बैंक अपने ग्राहकों के लिए एजेंट के रूप में भी कार्य करता है। इस मद से प्राप्त आय की भी जाँच उचित प्रमाणकों के आधार पर करनी चाहिए।

(10) कभी-कभी बैंक अपने ग्राहकों की सम्पत्तियों व वस्तुओं को सुरक्षित रखने का कार्य भी करता है। अतः इस स्रोत से प्राप्त आय की भी किये गये अनुबन्धों व प्रमाणकों के आधार पर जाँच करनी चाहिए।

व्यय की मदों की जाँच

(11) अंकेक्षक को देखना चाहिए कि पूँजीगत व आयगत व्ययों का सही-सही बँटवारा किया गया है या नहीं। यदि कोई सम्पत्ति खरीदी गई है तो यह पूँजीगत व्यय होता है। अतः इसका लेखा पूँजीगत व्यय के रूप में होना चाहिए, आयगत व्यय के रूप में नहीं।

(12) बैंक में जमा की गयी राशि पर देय ब्याज की भी जाँच की जानी चाहिए तथा देखना चाहिए कि इसका समुचित लेखा हुआ है या नहीं।

अन्य मदों की जाँच

(13) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि बैंकों ने Non Banking Assets के अन्तर्गत उन चल व अचल सम्पत्तियों को दिखाया है या नहीं जिन्हें बैंक ने अपनी राशि वसूल करने के सम्बन्ध में प्राप्त किया है।

(14) बैंक की शाखाओं से भी विवरण प्राप्त हुए हैं वे सम्बन्धित शाखा के प्रबन्धक या एजेण्ट द्वारा प्रमाणित हैं या नहीं। अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि शाखाओं के लेखों को अन्तिम लेखों में पूर्ण रूप से सम्मिलित कर लिया गया है या नहीं।

(15) बैंक के किसी भी उत्तरदायी अधिकारी के पास-बुक पर 6 माह में कम से कम एक बार अवश्य हस्ताक्षर होने चाहियें। अतः अंकेक्षक को कुछ पास-बुकों की अकस्मात् जाँच करनी चाहिए।

(16) अंकेक्षक को विदेशी मुद्रा के लेन-देन की अत्यन्त सावधानी से जाँच करनी चाहिए तथा यह भी देखना चाहिए कि इन व्यवहारों पर लाभ-हानि का ठीक-ठाक लेखा किया गया है अथवा नहीं।

(17) अंकेक्षक को देखना चाहिए कि सम्भाव्य दायित्व को चिट्ठे में नोट के रूप में अलग से दिखाया गया है या नहीं।

(18) संदिग्ध ऋणों के लिये पर्याप्त प्रावधान किया गया है या नहीं।

(19) सम्पत्तियों एवं दायित्वों का मिलान उचित प्रमाणकों से करना चाहिए तथा इनका सत्यापन अंकेक्षक द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाना चाहिए।

(20) अंकेक्षक को गुप्त कोषों की जाँच अत्यन्त सावधानी से करनी चाहिए ।

(21) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि स्थिति विवरण की तिथि तक के समस्त दायित्वों को चिट्ठे में सम्मिलित कर लिया गया है या नहीं।

(22) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि पूँजीगत खर्चों को अपलिखित किए बिना लाभांशों का भुगतान तो नहीं कर दिया गया है ।

इन सब बातों के अतिरिक्त निम्न सूचना अंकेक्षक को और देनी चाहिए-

(i) अंकेक्षक को जिन स्पष्टीकरणों की जरूरत थी वे सब उसे दे दिये गये थे।

(ii) कम्पनी के सब व्यवहार उसके अधिकारों के अन्तर्गत थे

(iii) उसका चिट्ठा एवं लाभ-हानि खाता, खातों की सत्यता प्रकट करता है । ।

शिक्षण संस्थाओं के खातों का अंकेक्षण

शिक्षण संस्थाओं के अन्तर्गत उन सभी स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, अनुसंधान तथा तकनीकी संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है जहाँ शिक्षण कार्य किया जाता है। अंकेक्षण की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए शिक्षा निदेशालय तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इन संस्थाओं को अंकेक्षण करनाने के लिए कहते हैं। राजकीय शिक्षण संस्थाओं अथवा अनुदान प्राप्त करने वाली शिक्षण संस्थाओं का अनिवार्य अंकेक्षण सरकार द्वारा किया जाता है। इन संस्थाओं का अंकेक्षण करते समय अंकेक्षक को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए

सामान्य बातें

1. नियमों को देखना-अंकेक्षक को स्कूल या कॉलेज के सम्बन्ध में प्रन्यास प्रलेख (Trust Deed) अथवा अन्य अधिनियम जिसके आधार पर संस्था चलाई जा रही है, को देखना चाहिए। कॉलिजों को प्रायः विश्वविद्यालय के भी अनेक नियमों का अनुपालन करना है। अतः विश्वविद्यालय के नियमों को भी देखना चाहिए और अंकेक्षक को देखना चाहिए कि इन्हीं के अनुसार खातों को रखा गया है या नहीं।

2. प्रबन्ध समिति की कार्यवाहक पुस्तक को देखना-यदि संस्था का प्रबन्ध समिति द्वारा किया जाता है तो अंकेक्षक को समिति की कार्रवाई पुस्तक को देखना चाहिए जिससे यह पता लग जाए कि लेखों के सम्बन्ध में जो प्रस्ताव पास किए गए थे, उनका पूर्णरूप से पालन किया गया है या नहीं।

आय की मदों का अंकेक्षण

एक शिक्षा-संस्था की आय के मुख्य साधन-छात्रों से फीस, सरकारी सहायता, चन्दे व दान, विनियोगों से आय, आदि हैं। इस सम्बन्ध में ऐसे अंकेक्षक को निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

1. छात्रों से फीस जहाँ तक छात्रों से प्राप्त फीस का सम्बन्ध है, इस प्राप्ति की जाँच छात्रों को दी जाने वाली रसीदों की प्रतिलिपि (Counterfoil of receipts) तथा रोकड़ से करनी चाहिए। उन प्रतिलिपियों का छात्रों के रजिस्टर से भी मिलान करना चाहिए। पेशगी प्राप्त फीस को उचित रूप से आगे ले जाया गया है या नहीं। अगर किसी छात्र की फीस पूरी या आधी माफ है तो अंकेक्षक को इस बात का पता लगा लेना चाहिए कि इसके लिए उचित अधिकारी की स्वीकृति प्राप्त है, या नहीं।

छात्रों से जो फीस प्राप्त की जाती है, वह विभिन्न मदों (Items) के लिए होती है जैसे—प्रवेश फीस, त्यूशन फीस, लाइब्रेरी फीस, परीक्षा फीस आदि। अंकेक्षक को देखना चाहिए कि इन विभिन्न शीर्षकों के खातों में सम्बन्धित रकम को जमा किया गया है या नहीं।

अगर फीस के सम्बन्ध में अंकेक्षक को किसी अनुचित बात का ज्ञान होता है तो उसे प्रबन्ध स्थिति को अवश्य बता देना चाहिए।

2. दान व चन्दे-दान व चन्दे की प्राप्ति की जाँच उनसे सम्बन्धित रजिस्टरों से करनी चाहिए तथा दानदाताओं व चन्दा देने वालों दी गई रसीद के प्रतिरूप से रजिस्टरों व रोकड़ बही की जाँच करनी चाहिए। यदि दान किसी विशेष उद्देश्य के लिये मिला है तो अंकेक्षक को देखना चाहिए कि इस रुपये को उस विशेष उद्देश्य पर ही खर्च किया गया है या नहीं।

3. राजकीय सहायता प्रायः शिक्षण संस्थाओं को राज्य या अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं जैसे विश्वविद्यालय व डायरेक्टर ऑफ एजूकेशन से कुछ न कुछ रुपया राजकीय सहायता के रूप में मिलता है। सरकारी स्कूलों में तो सम्पूर्ण व्यय ही सरकार से मिलता है। इसके सम्बन्ध में सरकार या विश्वविद्यालय की स्वीकृति देखनी चाहिए तथा प्राप्त रकम की जाँच रसीदों के प्रतिरूपों तथा सहायता रजिस्टर से करनी चाहिए।

4. सम्पत्तियों व विनियोगों से प्राप्ति-अंकेक्षक को चाहिए कि वह संस्था की सम्पत्ति व विनियोगों का प्रत्यक्ष अवलोकन करे तथा इस पर जो आय प्राप्त हो उसकी जाँच इनसे सम्बन्धित प्रलेखों व रोकड़ बही से करनी चाहिए। यदि किन्हीं विनियोगों पर ब्याज प्राप्त न हुआ हो तो अंकेक्षक को देखना चाहिए कि उसका लेखा चिट्ठे में किया गया है या नहीं।

व्यय की मदों का अंकेक्षण

1. कार्यरत शिक्षकों, शिक्षणेत्तर कर्मचारियों को दिये गये वेतन का प्रमाणन वेतन रजिस्टर की सहायता से करना चाहिए। यदि किसी कर्मचारी के वेतन में वृद्धि की गई है तो इसकी स्वीकृति प्रबन्ध समिति द्वारा होनी चाहिए। प्रबन्ध समिति की कार्यवाही पुस्तक से इसका मिलान करना चाहिए।

2. संस्था के कर्मचारियों की भविष्य निधि में प्रतिमाह राशि जमा हो रही है या नहीं तथा उसका लेखा समय पर किया जा रहा है या नहीं इसकी जाँच भी अंकेक्षक को करनी चाहिए।

3. विद्यार्थियों की दी गयी छात्रवृत्तियों की जाँच छात्रवृत्ति रजिस्टर से करनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि रजिस्टर पर प्राप्तकर्ता के हस्ताक्षर तथा गबाह के हस्ताक्षर हैं या नहीं।

4. संस्था जो भी व्यय चाहे वह प्रयोगशालाओं के उपकरण सम्बन्धी हो चाहे पुस्तकों के लिए पुस्तकें क्रय करने के हो या खेल सामग्री खरीदने तथा स्टेशनरी व लेखन सामग्री खरीदने के लिए हो वह सभी व्यय उत्तरदायी व्यक्ति द्वारा स्वीकृत होने चाहिए और उनका प्रमाणन रोकड़ बही या पास बुक से करना चाहिए।

5. अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि छात्रों द्वारा सुरक्षा कोष में जमा की गई राशि की वापसी की गई है या नहीं तथा उक्त राशि को वापिस करने के पूर्व छात्र से संस्था के प्रात देय सभी राशियाँ प्राप्त कर ली गई हैं या नहीं।

6. पूँजीगत व्ययों के लिये किसी उत्तरदायी व्यक्ति की स्वीकृति का होना अनिवार्य है, स्वीकृति के बिना ऐसे खर्चों को पास नहीं करना चाहिए तथा जो वस्तु खरीदी जाए उसकी प्रत्यक्ष जाँच करनी चाहिए।

7. समस्त स्थापना व्ययों का प्रमाणन करना चाहिए। यदि कोई व्यय अधिक मात्रा में है तो उसकी पूछताछ अवश्य करनी चाहिए और आयगत तथा पूँजीगत व्यय में पर्याप्त अन्तर कर देना चाहिए।

8. प्रायः प्रत्येक व्यय के लिये संस्था के बजट में एक अधिकतम राशि निर्धारित कर दी जाती है। अंकेक्षक को देखना चाहिए कि कोई भी व्यय निर्धारित व्यय अधिक नहीं होना चाहिए और यदि निर्धारित राशि से अधिक व्यय किया गया है तो उसके लिये प्रबन्ध समिति की स्वीकृति प्राप्त होनी चाहिए ।

अन्य बातें

अंकेक्षक को उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त कुछ अन्य बातों का भी ध्यान रखना चाहिए।

(9) अंकेक्षक को देखना चाहिए कि स्टाफ का प्रॉवीडेण्ट फण्ड उचित रूप से विनियोग किया गया है, या नहीं।

(10) अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि अप्राप्य सम्पत्तियाँ और प्रदत्त दायित्व उचित रूप से चिढे में लिखे गये हैं, या नहीं।

(11) बैंक तथा रोकड़ शेष का सत्यापन अवश्य किया जाना चाहिए ।

(12) चूँकि मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं का प्राप्य लाभांश तथा प्रतिभूतियों पर ब्याज आय-कर से मुक्त होता है, अतः अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि उद्गम -स्थान पर काटे गये आय-कर की रकम संस्था द्वारा आय-कर अधिकारियों से वापिस ले ली गयी है अथवा नहीं।

बीमा कम्पनी के खातों का अंकेक्षण

(Audit of the Accounts of Insurance Company)

भारत में दो प्रकार की बीमा कम्पनियाँ पायी जाती हैं। प्रथम, जो केवल जीवन-बीमा करती हैं। ये बीमा अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत आती हैं। दूसरी वे जो सामुद्रिक बीमा या अग्नि बीमा तथा अन्य प्रकार का बीमा करती हैं। ये बीमा कम्पनी अधिनियम, 1938 के अन्तर्गत आती हैं। इनके खाते बीमा अधिनियम, 1938 की धारा 10-29 के अन्तर्गत तैयार किये जाते हैं किन्तु इन पर भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 लागू होता है। बीमा कम्पनी का अंकेक्षण किसी चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट द्वारा कराया जाता है। बीमा कम्पनी का अंकेक्षण वस्तुतः कठिन होता है। अतः इसके अंकेक्षण में अंकेक्षक को काफी सावधानी बरतनी चाहिए। इस सम्बन्ध में अंकेक्षक को निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहियें-

सामान्य बातें

(1) एक बीमा कम्पनी में बहुत अधिक मात्रा में व्यवहार होते हैं एवं अंकेक्षक के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह उसके खातों की विस्तृत जाँच कर सके, अतः उसे कम्पनी की आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली पर निर्भर रहना पड़ता है, उसे देखना चाहिए कि यह प्रणाली उचित है या नहीं।

(2) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि भिन्न-भिन्न कोषों के लिए पृथक्-पृथक खाते बनाये गये हैं।

(3) अंकेक्षक को देखना चाहिए कि बीमा कम्पनी के वार्षिक खाते बीमा कम्पनी अधिनियम, 1938 एवं कम्पनी अधिनियम, 1956 के अनुसार तैयार किये गये हैं, या नहीं।

आय की मदों का अंकेक्षण

(4) एक बीमा कम्पनी की आय का मुख्य स्रोत है-पॉलिसियों पर प्राप्त प्रीमियम । अंकेक्षक को देखना चाहिए कि पॉलिसी की राशि रजिस्टर से मिलती है या अतः नहीं। बीमा कम्पनी को अधिकतम आय शाखाओं से प्राप्त होती है, शाखाओं के अंकेक्षण पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।

(5) कम्पनी द्वारा किये गये विनियोगों से प्राप्त लाभांश व ब्याज का सही-सही लेखा किया गया है या नहीं। इनका अंकेक्षण समुचित प्रमाणकों के आधार पर किया जाना चाहिए।

(6) यदि कम्पनी द्वारा कोई पुनर्बीमा किया गया है तो सम्बन्धित ठहराव का अध्ययन कर प्रीमियम की राशि की जाँच की जानी चाहिए।

(7) अंकेक्षक में देखना चाहिए कि सभी अप्राप्त प्रीमियम के बारे में उचित लेखे पुस्तकों में कर दिये गए हैं या नहीं। इसमें अंकेक्षक को यह ध्यान रखना चाहिए कि कहीं जब्त की गई पॉलिसियों की रकम को तो खातों में सम्मिलित नहीं कर लिया गया है।

व्यय की मदों की जाँच

(8) इन कम्पनियों के भुगतानों में सबसे बड़ा भाग दावों (Claims) का होता है।

जिन दावों का भुगतान किया गया है उसकी जाँच दावों के रजिस्टर से करनी चाहिए। दावों से सम्बन्धित दावे फार्म, पॉलिसी, निरीक्षण रिपोर्ट (Surveyor’s Report) तथा भुगतान से सम्बन्धित प्रपत्रों की भी जाँच करनी चाहिए।

(9) एजेन्टों को दिए जाने वाले कमीशन की जाँच उनके साथ हुए अनुबन्धों व उनसे प्राप्त रसीदों से करनी चाहिए। अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि बकाया कमीशन का लेखा ठीक प्रकार किया गया है या नहीं। कमीशन का प्रमाणन करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कमीशन की दर अधिनियम के अनुसार उचित है या नहीं।

(10) अंकेक्षक को दिये गये बोनस की जाँच कैश रजिस्टर एवं बोनस रजिस्टर से की जानी चाहिए।

(11) सभी खर्चे जैसे वैधानिक व्यय (legal expenses) आदि भिन्न-भिन्न विभागों में उचित रीति से बाँटे गये हैं या नहीं, यह भी देखना चाहिए।

(12) उसको वार्षिकियों (annuities) के सभी भुगतानों की जाँच करनी चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि सभी वार्षिकियों के लिए जो चुकता हो गयी हैं पर अदत्त हैं, भुगतान का आयोजन कर लिया गया है।

अन्य

(13) कम्पनी की सभी सम्पत्तियों एवं दायित्वों को उचित प्रमाणकों से मिलाना चाहिए एवं देखना चाहिए कि उन पर उचित ह्रास लगा दिया गया है, या नहीं। रोकड़ की जाँच भी अत्यन्त सावधानी से करनी चाहिए।

(14) अन्य जोखिम जो अभी समाप्त नहीं हुए हैं उनके लिए उचित रूप से प्रबन्ध होना चाहिए। सामान्यतया 40 प्रतिशत आयोजन पर्याप्त समझा जाता है जो बीमा अधिनियम के अन्तर्गत न्यूनतम माना गया है।

(15) अंकेक्षक को यह मालूम करना चाहिए कि प्रशासन के खर्चे धारा 40C के अन्तर्गत निर्धारित सीमाओं से अधिक तो नहीं हैं।

(16) शाखाओं के हिसाब-किताब की जाँच किसी योग्य अंकेक्षक के द्वारा की गयी है अथवा नहीं। यदि नहीं की गयी हो तो अंकेक्षक द्वारा जाँच की जानी चाहिए।

(17) यह भी देखना चाहिए कि बीमा कम्पनी आचार-संहिता का पूर्णरूपेण पालन करती है या नहीं।

सहकारी समिति का अंकेक्षण

(Co-operative Audit)

आशय-सहकारी अंकेक्षण से आशय सहकारी समितियों की लेखा-पुस्तकों की विशिष्ट, आलोचनात्मक एवं सुझावात्मक जाँच से है जिससे यह पता लगाया जा सके कि संस्था को लेखा-पुस्तकें सत्य, पूर्ण तथा नियमानुकूल हैं और समिति सहकारिता के सिद्धान्तों का पालन करते हुए अपने सदस्यों के आर्थिक विकास में योगदान कर रही है

उद्देश्य-सहकारी अंकेक्षण के निम्नांकित उद्देश्य हैं-

(1) सिद्धान्तों का प्रयोग (Application of Principles)– सहकारी समितियों का अंकेक्षण कराने का एक उद्देश्य यह होता है कि समिति में सहकारिता के सिद्धान्तों का पालन किया जा रहा है या नहीं।

(2) सहकारी अधिनियम 1912 का पालन (To follow up co-operative Act 1912) – सहकारी समितियों के संचालनार्थ केन्द्रीय सरकार द्वारा पारित सहकारी अधिनियम के निर्देशों का पालन किया जा रहा है या नहीं, इसकी जानकारी प्राप्त करने के लिये भी सहकारी समितियों का अंकेक्षण कराया जाता है ।

(3) सहकारिता की भावना की जाँच करना (To examine the feeling co-operation)- सहकारी समितियों का अंकेक्षण कराने का प्रमुख उद्देश्य, यह जानकारी प्राप्त करना होता है कि सहकारी समिति का प्रशासन सहकारिता की भावना के आधार पर किया जा रहा है या नहीं।

(4) लेखों की सत्यता, पूर्णता तथा नियमानुकूलता की जाँच करना (To examine the records)- सहकारी समितियों का अंकेक्षण कराने का एक उद्देश्य यह भी है कि समिति द्वारा हिसाब-किताब की जो पुस्तकें बनायी गयी हैं वे सत्य, पूर्ण तथा नियमानुकूल हैं या नहीं।

सहकारी समिति का अंकेक्षण करते समय ध्यान देने योग्य बातें

सहकारी समिति का अंकेक्षण करते समय अंकेक्षक को निम्न कार्य करने चाहियें-

(A) सामान्य जाँच

(1) अंकेक्षक को सर्वप्रथम संस्था को प्रभावित करने वाले सहकारी नियमों उपनियमों तथा कार्यवाही समिति के नियमों का अध्ययन करना चाहिये और यह देखना चाहिये कि समिति इन नियमों का पालन कर रही है या नहीं।

(2) समिति की पूँजी तथा उसके सदस्यों के विषय में पता लगाना चाहिये। (3) समिति के प्रबन्धकारिणी सदस्यों की संख्या, उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों का

अध्ययन करके समिति के कार्यों के प्रति उनकी रुचि, सतर्कता, सावधानी तथा पारस्परिक व्यवहार की जाँच करना ।

(4) समिति के सदस्यों की संख्या एवं उन्हें समिति से प्राप्त लाभ की भी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये।

(B) आय की जाँच

(1) सदस्यों से प्राप्त शुल्क-अंकेक्षक को सदस्यों से प्राप्त शुल्क का प्रमाणन प्रार्थना-पत्रों, रसीदों के प्रतिपर्ण तथा सदस्य रजिस्टर की सहायता से करना चाहिये ।

(2) विनियोगों से प्राप्त लाभांश व ब्याज-अंकेक्षक को इसकी जाँच सम्बन्धित रसीदों के प्रतिपर्ण, लाभांश प्रपत्रों तथा प्रतिभूतियों से करनी चाहिये ।

(3) बिक्री से प्राप्त आय-समिति द्वारा की गयी बिक्री की जाँच दैनिक बिक्री के साराँश से करनी चाहिये।

(4) सदस्यों के ऋण की जाँच-सदस्यों से लिए गये ऋण का प्रमाणन रसीदों के प्रतिरूपों, ऋण रजिस्टर तथा सदस्य रजिस्टर से करना चाहिये।

(5) सरकार से प्राप्त सहायता-सहकारी समितियों को कभी-कभी सरकारी सहायता भी प्राप्त होती है। इसकी जाँच रसीदों के प्रतिरूपों, बैंक से प्राप्त पत्रों तथा कोषागार के प्रलेखों से करनी चाहिये ।

(6) बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से प्राप्त ऋण-इसका प्रमाणन पास-बुक तथा सम्बन्धित प्रलेखों से करना चाहिये।

(C) व्ययों या भुगतानों की जाँच

(1) व्ययों की अधिकृतता की जाँच-सर्वप्रथम अंकेक्षक को यह देखना चाहिये कि समिति द्वारा किये गये सभी भुगतान उच्च अधिकारी द्वारा अधिकृत हैं या नहीं।

(2) कर्मचारियों को देय वेतन तथा मजदूरी की जाँच-कर्मचारियों को देय वेतन तथा मजदूरी का प्रमाणन वेतन रजिस्टर तथा नियुक्ति-पत्र से करना चाहिए।

(3) ऋण तथा ब्याज के भुगतान की जाँच-बैंक ऋण तथा ब्याज के भुगतान की जाँच सम्बन्धित रसीदों तथा अनुन्ध पत्रों से करनी चाहिए।

(4) सदस्यों को चुकाए गए लाभांश की जाँच-सदस्यों को चुकाए गए लाभांश की जाँच, लाभांश पत्रों तथा सदस्यों से प्राप्त रसीदों से करनी चाहिए। अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि लाभांश वितरण के लिये सम्बन्धित नियमों का पालन किया गया है या नहीं।

(5) अन्य व्ययों का प्रमाणन-अन्य व्ययों का प्रमाणन सम्बन्धित प्रमाणकों से करना चाहिए और साथ ही यह भी देखना चाहिए कि पूँजीगत तथा आयगत व्ययों में पर्याप्त अन्तर किया गया है या नहीं।

अन्य जाँच

(1) रजिस्ट्रार के पास भेजी जाने वाली सूचनाओं के सम्बन्ध में जाँच-अंकेक्षक को यह जाँच करनी चाहिए कि समिति के द्वारा जो सूचनाएँ व प्रपत्र रजिस्ट्रार को भेजने होते हैं, वे समयानुकूल भेजे गए हैं या नहीं।

(2) सम्पत्तियों तथा दायित्वों के मूल्यांकन की जाँच-अन्तिम खाते तैयार करते समय समिति ने सम्पत्तियों और दायित्वों का जो मूल्यांकन किया है वह सही है या नहीं यह जाँच करनी चाहिए


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