B.Com 2nd Year Cost Accounting Notes
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CHAPTER 1 | Importance and Elements of Cost |
CHAPTER 2 | Materials |
CHAPTER 3 | Labour |
CHAPTER 4 | Overheads |
CHAPTER 5 | Contract and Job Costing |
CHAPTER 6 | Process Costing |
CHAPTER 7 | Operating Cost |
CHAPTER 8 | Reconciliation of Cost and Financial Accounts |
CHAPTER 9 | Unit of Output costing |
CHAPTER 10 | Tender price |
CHAPTER 11 | Machine Hour Rate |
CHAPTER 12 | Cost Contral Account and Integrate Accounts |
लागत लेखांकन का अर्थ एवं परिभाषा
Meaning and Definition of the Cost Accounting
लागत लेखांकन में लेखे इस प्रकार किये जाते हैं कि वस्तु या सेवा के उत्पादन से सम्बन्धित विभिन्न व्ययों अथवा सेवाओं का वितरण इस प्रकार किया जा सके ताकि वस्तु या सेवा की कुल तथा प्रति इकाई लागत ज्ञात हो सके तथा व्यवसायिक नियंत्रण व नीति निर्धारण के लिये आवश्यक समंक एवं सूचनाएँ प्राप्त हो सकें।
अन्य शब्दों में,लागत लेखों में वैज्ञानिक विधि से विभिन्न व्ययों का विश्लेषण किया जाता है जिससे कि किसी कार्य को करने तथा किसी वस्तु के उत्पादन में आने वाली कुल लागत तथा कुल सेवाओं आदि का मूल्य ठीक-ठीक पता लग जाये। वस्तुतः लागत लेखांकन द्वारा प्रदत्त सूचनाओं से लागत का विश्लेषण, नियंत्रण एवं विश्लेषण सम्भव होता है।
“लागत लेखे का अर्थ व्ययों का वर्गीकरण, लेखा तथा उपयुक्त रूप से बँटवारा करने से है, जिससे उत्पादित वस्तुओं अथवा सेवाओं की उत्पादन लागत ज्ञात हो सके। समुचित एवं व्यवस्थित आँकड़े इस प्रकार प्रस्तुत किये जाते हैं कि प्रशासकों का मार्गदर्शन एवं उनके प्रबन्ध कार्य में सुविधा हो। यह प्रत्येक ठेका, कार्यविधि सेवा या इकाई की लागत निर्धारित करता है तथा उत्पादन, बिक्री एवं वितरण की लागतें बताता हैं।”
हैराल्ड जे० हैलडन- “लागत लेखांकन व्ययों का एक ऐसा वर्गीकरण है, जिससे उत्पादन की किसी विशेष इकाई का कुल लागत शुद्धतापूर्वक ज्ञात हो सके तथा साथ ही वह भी ज्ञात हो सके कि कुल लागत किस प्रकार प्राप्त हुई।”
-दाल्टर डब्ल्यू० – “लागत लेखे लेखांकन की एक ऐसी विधि है जिनके अन्तर्गत किसी विशिष्ट वर बनाने या किसी विशिष्ट कार्य को करने में प्रयक्त सामग्री एवं श्रम का हिसाब रखा जाता है ।”
“लागत लेखाविधि व्ययों का इस प्रकार उचित ढंग से वितरण करती है जियो का ज्ञान हो जाये और इसे ऐसे उचित ढंग से प्रस्तुत करती है जिससे इसके मा उत्पादक अपने व्यवसाय पर नियंत्रण रख सकें।”
“लागत लेखाकर्म एक विज्ञान अथवा विधि है,जो किसी विशिष्ट उत्पादन कार्य अथ की प्रति इकाई के उन सभी प्रमुख तत्वों को बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती है। जिससे लागत बनी है । जैसे-सामग्री,श्रम,अन्य प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष व्यय ।”
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लागत-लेखे के उद्देश्य
Objects of Cost Accounting
लागत लेखांकन के कुछ प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं
(1) उत्पादन की कुल तथा प्रति इकाई लागत ज्ञात करना।
(2) उत्पादित इकाइयों का विश्लेषण एवं वर्गीकरण करना।
(3) वस्तु तथा टेण्डर मूल्यों को निर्धारित करना।
(4) उत्पादन लागत को नियंत्रित करने के लिये निर्माण कार्य में होने वाली असावधानियों व अपव्ययताओं का पता लगाना तथा उन्हें रोकना।
(5) उत्पादन से सम्बन्धित भविष्य के लिये लाभकारी योजनाएँ बनाना ।
(6) वर्तमान मशीन एवं तकनीक की क्षमता का ज्ञान करके भविष्य के लिये अनुमान लगाना।
(7) उत्पादन और प्रबन्ध के दोषों को दूर करने के लिये सर्वोत्तम विधियाँ निश्चित करना । 18 विभिन्न लागत लेखों का मिलान करके लाभ-हानि के स्रोतों की जानकारी होना। (9) अन्तिम ख़ाते बनाने में सहायता प्रदान करना।
(10) उत्पादन के आकार तथा फैक्ट्री की बनावट आदि को ध्यान में रखते हुए उत्पादन कार्य में मितव्यताएँ लाना। …
लागत लेखांकन के कार्य किया
Functions of Cost Accounting
(1) लागत-निर्धारण (Cost Determination)–
लागत लेखों के द्वारा निर्माण की हुई विभिन्न वस्तओं की उत्पादन लागत ज्ञात की जाती है । विभिन्न कार्यों, प्रक्रियाओं एवं ठेकों पर इनका वर्गीकरण किया जाता है।
(2) भावी नीति निर्धारण के लिये समंक प्रस्तुत करना (Presentation of Data for future plans)-
लागत लेखा उचित समंक प्रस्तुत करता है जिससे उत्पादक विभिन्न वस्तुओं की कीमतें निर्धारित कर सकें तथा भविष्य में होने वाले उत्पादन की मात्रा का निर्धारण कर सकें।
(3) लागत नियन्त्रण (Cost Control)-
लागत लेखांकन का प्रमुख कार्य लागतों पर नियंत्रण करना है ताकि कम से कम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन किया जा सके। इसके
(4)लागत विश्लेषण (Cost Analysis)-
लागत विश्लेषण में विभिन्न व्ययों का विस्तृत विश्लेषण किया जाता है। इन व्ययों की गत अवधि के व्ययों से तुलना तथा मानक लागत से तुलना करके अन्तरों की जानकारी प्राप्त की जाती है।
(5) विक्रय मूल्य निर्धारित करना (Determination of selling price)-
लागत लेखांकन का प्रमुख कार्य उचित विक्रय मूल्य निर्धारित करना भी है ताकि प्रतिस्पर्धा का सामना किया जा सके एवं उचित लाभ अर्जित किया जा सके।
(6) विभिन्न विभागों की कार्यक्षमता का माप (Measurement of Effeciency of Different Departments)-
लागत लेखांकन के अन्तर्गत मजदूरों में उनके कार्य का उचित बँटवारा किया जाता है तथा मजदूरी देने की उचित पद्धति,बजटरी नियंत्रण आदि कार्यों से विभिन्न विभागों की कार्यक्षमता का अध्ययन किया जाता है ।
लागत लेखांकन के लाभ तथा महत्व
Merits and Importance of Accounting
लागत लेखों का महत्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है क्योंकि इसके द्वारा कोई भी संगठन अपनी लागत सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन करके लाभ को अधिकतम करता है । लागत लेखों से विभिन्न वर्गों को भिन्न-भिन्न लाभ प्राप्त होते हैं। लागत लेखों से महत्व का विश्लेषण निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
(I) उत्पादकों व प्रबन्धकों को लाभ (Advantages to producers and Managers)-
किसी भी संस्था में लागत लेखों से उत्पादकों एवं प्रबन्धकों को निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं
(1) सामग्री एवं संयत्र का सर्वोत्तम उपयोग।
(2) वित्तीय लेखों में सहायक ।
(3) व्यापार के लिये अनुपयोगी व उपयोगी कार्यों का ज्ञान। (4) वित्तीय विवरण किसी भी समय तैयार करना।
(5) उत्पादन लागत का विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन ।
(6) प्रमाप के निर्धारण में सहायक ।
(7) उचित बिक्री मूल्य निर्धारित करना।
(8) मानक लागत एवं बजटरी नियंत्रणों द्वारा अन्तरों की जाँच करना।
(9) कार्य के लिये अनुमान लगाना एवं टेण्डर देना।
(10) लाभ-हानि के कारणों का पता लगाना ।
(11) मन्दीकाल में उपयोगिता।
(12) अपव्ययों को रोकना।
(13) भविष्य के लिये नीतियाँ बनाना ।
(14) श्रमिकों की समस्याओं को दूर करना।
(II) कर्मचारियों को लाभ (Advantages to Workers)-
लागत लेखों के द्वारा प्रत्येक श्रमिक द्वारा किये जाने वाले कार्य को निर्धारित कर दिया जाता है जिसके परिणामस्वर प्रत्येक कर्मचारी अपनी कार्यसीमा के अनसार कार्य करता है तथा संस्था में होने वाले अपव्ययो में लागत लेखांकन/4 कमी आती है । प्रत्येक कर्मचारी के कार्य का पूर्ण विवरण रखा जाता है व उसी के हिसाब से उसे पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता है । इस प्रकार लागत सम्बन्धी लेखों से श्रमिकों की कुशलता, आय व उत्पादकता में वृद्धि होती है ।
(iii) विनियोक्ताओं को लाभ (Advantages to Investors)-
लागत लेखों के द्वारा संस्था को यह पता चलता है कि किस संस्था में विनियोग किया जाये ताकि अधिक से अधिक . लाभ प्राप्त हो सके । व्यवसाय की वर्तमान व भावी लार्भाजन क्षमता का ज्ञान होता है । लागत
लेखों के द्वारा व्यवसाय की वास्तविक स्थिति का ज्ञान होने के कारण विनियोक्तओं एवं ऋणदाताओं का उन पर पूर्ण विश्वास बना रहता है ।
(IV) उपभोक्ताओं को लाभ (Advangates to consumers)-
लागत लेखों के द्वारा उत्पादन लागत में कमी आती है तथा किस्म में भी सुधार होता है क्योंकि उत्पादन का लेखा रखने के कारण श्रमिकों की कार्य कुशलता बढ़ती है एवं अपव्ययों में भी कमी आती है । इस प्रकार उत्पादन लागत कम होने के कारण उपभोक्ताओं को कम कीमत पर उत्तम किस्म का माल प्राप्त होता है । इस प्रकार उत्पादक उपभोक्ताओं को वस्तु की कीमत व किस्म से सम्बन्धित संतुष्टि प्रदान करते हैं।
(V) सरकार को लाभ (Advantages to Government)
लागत लेखों के द्वारा विभिन्न उद्योगों की विस्तृत एवं विश्लेषणात्मक सूचनाएं प्राप्त होती हैं जिससे सरकार को उद्योगों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण नीतियाँ बनाने में सहायता मिलती है । मूल्य निर्धारण, मूल्य नियन्त्रण, आयकर के निर्धारण, लाभांश भुगतान सरकारी संरक्षण आदि नीतियों के निर्धारण में लागत लेखे महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, लागत लेखों के रखे जाने से उत्पादकों, विनियोक्ताओं एवं ऋणदाताओं को ही लाभ नहीं होता वरन् समाज के प्रत्येक क्षेत्र में इसका लाभ पहुँचता है । ये लेखे सरकार, उपभोक्ताओं व सम्पूर्ण राष्ट्र को लाभ पहुँचाते हैं। सरकारी उद्योग व उपक्रमों की कार्यक्षमता में वृद्धि करने के लिये लागत लेखा पद्धति अपनाई जाती है । आपत्तिकालीन स्थिति में भी कार्य करने हेतु लागत रेखा पद्धति अपनाई जाती है ।
व्यवसायों में लागत
व्यवसायों में लागत लेखों के उद्देश्यों एवं सिद्धान्त एक ही होते हैं । परन्तु व्यवसाय की प्रकृति के अनुसार लागत लेखों की पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं । लागत लेखांकन की प्रमुख पद्धतियाँ इस प्रकार है
- विधि अथवा प्रक्रिया लागत पद्धति
- बहुसंख्यक या मिश्रित लागत पद्धति
- समान लागत पद्धति
- लागत जोड़ पद्धति
- उपकार्य या ठेका लागत पद्धति
(1) विधि अथवा प्रक्रिया लागत पद्धति (Process Costing Method)
जब कोई वस्तु निर्मित अवस्था तक पहुँचने में अनेक विधियों या प्रक्रियाओं (Processes) या उत्पादन की विभिन्न स्थितियों (different stages of production) से होकर गुजरती है, और प्रत्येक विधि का कार्य दूसरी विधि से सरलता से पृथक किया जा सकता है, और उत्पादक प्रत्येक स्थिति या विधि की पृथक-पृथक कुल लागत और प्रति इकाई लागत जानना चाहता है, तो विधि लागत पद्धति को अपनाया जाता है । इस पद्धति में प्रत्येक प्रक्रिया’ (Process) का अलग खाता खोल दिया जाता है और उससे सम्बन्धित व्यय उसमें लिखे जाते हैं। प्रत्येक विधि का ‘क्षय’ (Wastage or Scrap) तथा भार में कमी’ (Loss in weight) इससे ज्ञात हो जाता है । इससे प्रत्येक विधि की उत्पादन-लागत ज्ञात हो जाती है । एक विधि का माल दूसरी विधि में और दूसरी का तीसरी विधि में कच्ची सामग्री की तरह हस्तान्तरित कर दिया जाता है । यह पद्धति तेल,रसायन पदार्थ, चीनी, साबुन,रंग व वार्निश,वनस्पति घी आदि बनाने वाले उद्योगों में काम में लाई जाती
(2)बहुसंख्यक या मिश्रित लागत पद्धति (Multiple Costing Method)
जिन उद्योगों में अलग-अलग प्रकार की छोटी-छोटी वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है तथा बाद में उन सबको मिलाकर अन्तिम उत्पाद निर्मित किया जाता है,वहाँ इस पद्धति का प्रयोग किया जाता है; जैसे—साइकिल,टाइपराइटर, टेलीविजन,मोटरकार,रेडियो,घड़ी, सिलाई मशीन आदि । क्योंकि इस प्रकार की वस्तुओं में प्रयुक्त सभी पुर्जे एवं वस्तुएँ एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। अतः यह आवश्यक होता है कि हर पुर्जे की लागत मालूम की जाये और इनकी पृथक्-पृथक् लागत ज्ञात करने हेतु आवश्यकतानुसार एक से अधिक लागत निर्धारण विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसलिये इसे बहुसंख्यक लागत लेखांकन रीति कहते हैं । स्पष्ट है कि अलग-अलग वस्तुओं के लिए अलग-अलग लागत निर्धारण विधि का प्रयोग किया जाने के कारण ही इसे बहुसंख्यक लागत लेखांकन पद्धति कहते हैं ।
(3) समान लागत पद्धति (Uniform costing)-
जब एक ही प्रकार का व्यवसाय करने वाली संस्थाओं द्वारा एक-सी लागत पद्धति अपनाई जाती है तो उसे समान लागत पद्धति’ कहते हैं । अनेक वाणिज्य मंडल अपने सदस्यों को एक सी लागत पद्धति अपनाने की सलाह देते हैं। जिससे तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके । समान-लागत पद्धति में मजदूरी व बोनस योजनायें, व्ययों का विभागीकरण व अप्रत्यक्ष व्ययों के बंटवारे की भी समान पद्धति अपनाने का प्रयास किया जाता है।
(4) लागत जोड़ पद्धति
जब आपत्तिकाल में कुछ कार्य शीघ्र पूर्ण कराने होते हैं,ठेकेदारों को ठेका-मूल्य (Contract Price) तय किये बिना इस शर्त पर ठेका दे दिया जाता है कि ठेके की जो लागत आयेगी उसी पर निश्चित प्रतिशत लाभ जोड़कर उसे ठेका-मूल्य दिया जायेगा। इस आधार पर जो ठेके दिये जाते हैं, उन्हें लागत जोड़ पद्धति (cost plus contracts) कहते हैं।
(5) उपकार्य या ठेका लागत पद्धति (Job or Contract Costing)-
जिन व्यवसायों में आदेशानुसार उत्पादन या कोई उपकार्य पूरा किया जाता है वहाँ प्रत्येक उपकार्य की लाग समीक्षा तथा लाभ-हानि की जानकारी प्राप्त करने हेतु उपकार्य लागत पद्धति (Job Coshi को अपनाया जाता है । प्रत्येक कार्य की लागत एकत्रित करने हेतु पृथक रूप से (Job Care बनाया जाता है। यह पद्धति मुद्रकों (Printers), मशीनी पुर्जे निर्माताओं, फाउण्डियों तथा सामान्य इन्जीनियरियंग कार्यशालाओं द्वारा अपनाई जाती है।
जब कार्य का स्वरूप बड़ा हो तथा वह लम्बी अवधि तक चलाने वाला हो तो ठेका लागत पद्धति अपनाई जाती है। प्रत्येक ठेके के लिए पृथक-पृथक खाता रखा जाता है। इस पद्धति का प्रयोग मुख्यतः भवन,सड़क तथा बाँध व अन्य निर्माण आदि में होता है।
(6) लक्ष्य लागत विधि (Target Costing Method)
इस विधि में निर्माण अथवा उत्पादन आरम्भ करने से पूर्व ही निर्माण व्ययों के लक्ष्य निर्धारित कर दिये जाते हैं । उत्पादन व्यय के लक्ष्य अनुमान के आधार पर निर्धारित किये जाते हैं और निर्माण काल में इन लक्ष्यों को पूर्ण ध्यान में रखा जाता है। लक्ष्य निर्धारित करने में विशेष सावधानी रखी जाती है। यह विधि बड़े-बड़े बाँध पुल या सड़कों के निर्माण में प्रयुक्त होती है। अनुमानित लागत को ही लक्ष्य लागत कहते हैं और इसी आधार पर ठेकेदारों से टेण्डर माँगे जाते हैं तथा स्वीकार किये जाते हैं ।
(7) परिचालन लागत पद्धति (Operating Cost System)-
जो संस्थायें उत्पादन नहीं करतीं बल्कि सेवायें प्रदान करती हैं, वे इस पद्धति को उपयोग में लाती हैं । इस पद्धति को ‘सेवा लागत विधि’ (Service Cost method) भी कहते हैं । रेलवे, बस,ट्रांसपोर्ट,ट्राम्बे कम्पनियाँ तथा पानी,बिजली,गैस अदि सप्लाई करने वाले उपक्रम,यदि सेवा संपादन की प्रति इकाई लागत ज्ञात करना चाहती हैं । इस विधि का उपयोग करती हैं, जैसे यात्री ले जाने के प्रति किलोमीटर लागत या माल ढोने की प्रति क्विटल-किलोमीटर लागत।
(8) समूह लागत पद्धति (Batch Costing)-
जहाँ पर उत्पादन कार्य को सुविधा हेतु पृथक्-पृथक् समूहों में पूरा किया जाता है और प्रत्येक समूह की अलग-अलग लागत ज्ञात करनी होती है वहाँ यह विधि अपनायी जाती है । इस रीति के अन्तर्गत प्रत्येक समूह को उत्पादन की एक इकाई माना जाता है । समूह लागत में बैच में उत्पादित कुल वस्तु इकाइयों को संख्या से भाग देकर प्रति इकाई लागत ज्ञात कर ली जाती है । इस पद्धति का प्रयोग मुख्यतः खाद्य वस्तुओं का निर्माण करने,बेकरीज व कारखानों में होता है । वस्तुतः यह पद्धति उपकार्य लागत पद्धति का विस्तार मात्र
(9) एकांकी अथवा उत्पादन लागत पद्धति (Single or Output or Unit or Uniform Cesting Method)-
इस विधि का उपयोग उन संस्थाओं में होता है जहाँ निर्मित माल की सभी इकाइयाँ एक-सी होती हैं तथा प्रमापित वस्तुओं का उत्पादन होता है । यह विधि कोयले की खानों (Collieries),ईंटों के भट्टों (Brick klins),सीमेंट के कारखानों,कागज की मिलों, शराब के कारखाने (Breweriews), दुग्ध उत्पादन संस्थाओं (Dairies) व पत्थर की खानों (Quarries) आदि में प्रयोग की जाती है । इस विधि में प्रति इकाई लागत तथा उत्पादन की कुल लागत मालम की जाती है ।
(10) विभागीय लागत पद्धति (Departmental Costing System)-
जब फक्ट्रा का कार्य पथक पथक विभागों में बंटा हो और प्रत्येक विभाग को अलग-अलग लागत ज्ञात करना हा तो यह पद्धति काम में लाई जाती है। इस पद्धति में व्ययों को सभी विभागों में विभाजित किया आता है और प्रत्येक विभाग का लाभ-हानि ज्ञात किया जाता है।
(11) प्रमाप लागत पद्धति (Standard Costing System)-
उत्पादन को कुशलता व मितव्ययता से करने के लिये यह पद्धति काम में लाई जाती है। पुराने अनुभव व सम्भाव्य पारिस्थितियों का अनुमान करते हुए विभिन्न कार्यों को प्रमाप-लागत ज्ञात की जाती है।
(12) सामान लागत पद्धति (Marginal Cost System)–
फैक्ट्री के कुछ व्यय स्थिर (Fixed) तथा कुछ व्यय परिवर्तनशील (variable) होते है। स्थिर लागतों पर उत्पादन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन परिवर्तनशील व्ययों में उसी अनुपात में परिवर्तन होता है । यदि उत्पादक यह जानना चाहता है कि कम से कम किलमा उत्पादन करे कि उसके स्थिर व्यय वसल हो जाये अधात् उसे लाभ न हो तो हानि भी न हो तो यह सीमान्त लागत पद्धति के आधार पर ‘सम विच्छेद निन्द’ (Break even point) ज्ञात कर सकता है।
लागत से आशय
(Meaning of Cost)
लागत से ऑभिप्राय हुन साथी कायों से है जिसकी सहायता से किसी वस्तु का निर्माण किया आता है । लागत लेखों में उत्पादन के सभी अयों का विस्तृत विश्लेषण एवं वर्गीकरण किया जाता है। लागत के विचित्र जलो का वर्गीकरण करने से अभिवाय विचित्र तलों को भिन्न-भित्र लागत ज्ञात करना है । लागत के विभिन्न तत्वों को दो भागों में बांटा जा सकता है -(1) प्रत्यक्ष लागते (2) अप्रत्यक्ष लागते ।
अन्य सय में होते हैं जो निश्चित रूप से उत्पादित वस्तु की विशेष इकाई से सम्बन्धित होते हैं। इनके अन्तर्गत प्रत्यय सामग्री प्रत्यक्षमा एवं अन्य प्रत्यक्ष व्ययों को शामिल किया जाता है । अप्रत्यक्ष व्यायवे व्यय होते हैं जिनका सम्बन्ध उत्पादन की मात्रा से नहीं होता। ये स्थाई प्रजाति के व्यय होते हैं। इनमें कार्यालय उपरिव्यय किराया व वितरण उपरिव्यय आदि शामिल किये जाते हैं। लागत के वर्गीकरण को निम्न आधारों पर बांटा जा सकता है लागत के विभिन्न तत्व हैं।
प्रत्यक्ष सामगो Direct Materials)
प्रत्यक्ष मजदूरी (Direct wiages)
अन्य प्रत्यक्ष व्यय (Other Direct Expensesy
(i) प्रत्यक्ष लागते (Direct Costs)
(II) अप्रत्यक्ष लागते (Indirect Costs)
ठेका लागत का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning & Definition of Contract Account)
ठेके पर कराये जाने वाले कार्यों का हिसाब-किताब (ठेकेदारों द्वारा) रखने की विधि ही ‘ठेका लागत विधि’ कहलाती है अर्थात् ठेके पर आने वाली लागत तथा लाभ-हानि को ज्ञात करने के सम्बन्ध में जो लेखे ठेकेदारों द्वारा रखे जाते हैं,उनकी लेखांकन-प्रक्रिया को ‘ठेका लागत विधि’ के नाम से जाना जाता है। ..“ठेका या सावधि-परिव्यय पद्धति उन व्यवसायों द्वारा अपनाई जाती है; जो निश्चित ठेके का कार्य करते हैं,जैसे- भवन-निर्माणकर्ता तथा ठेकेदार।”
वाल्टर डब्ल्यू० बिग० – “लागत की यह पद्धति उन व्यवसायों में अपनाई जाती है जहाँ रचनात्मक ठेके लिये जाते हैं तथा न केवल ठेके के पूरा होने पर वरन् कार्य पूर्ति की विभिन्न अवस्थाओं में प्रत्येक ठेके की सही लागत जानने की इच्छा रहती है।” ।
-जे० आर० बॉटलीबॉय ठेके के पूर्ण निष्पादन का समय निश्चित होता है। अतः ठेका लागत विधि’ को ‘सावधि लागत विधि’ (Terminal Costing) भी कहा जा सकता है । यदि ठेकेदार निर्धारित समय में ठेके का कार्य पूरा करने में असमर्थ रहता है तो वह ठेकादाता के प्रति लिखित अनुबन्ध के अनुसार वैधानिक रूप से उत्तरदायी होता है।
ठेकेदार ठेके के सम्बन्ध में किये गये सभी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष व्ययों को ठेके खाते की डेबिट में लिखता है जबकि ठेका स्थल से स्टोर्स को लौटाई गई सामग्री,अन्य ठेकों को हस्तान्तरित सामग्री,ठेका स्थल पर बची हुई सामग्री तथा प्लाण्ट एवं प्रमाणित कार्य का मूल्य तथा अप्रमाणित कार्य की लागत को ठेके खाते की क्रेडित में दर्शाता है । अन्त में ठेके पर हुए लाभ या हानि को ज्ञात करने के लिए ठेके खाते के दोनों पक्षों का योग करते हैं । यदि ठेके खाते की क्रेडिट साइड का योग अधिक होता है तो अन्तर को लाभ माना जाता है जबकि डेबिट साइड का योग अधिक होने पर प्रकट अन्तर हानि होती है।
ठेके खाते की तैयारी
(Preparation of Contract Accounts)
ठेका खाता दो पक्षों में पाया जाता है- नाम पक्ष तथा जमा पक्ष । इन दोनों पक्षों का अन्तर ठेके पर लाभ या हानि को दर्शाता है। इन दोनों पक्षों में आने वाली मुख्य मदों का विवरण इस प्रकार है
ठेके खाते का नाम पक्ष
(Defict side of Contract Account)
मजदूरी (Wages)-
प्रत्येक ठेके पर ठेका कार्य को सम्पन्न करने के लिए कुछ श्रमिक, मिस्त्री,आदि लगाये जाते हैं । इन्हें दिये जाने वाले पारिश्रमिक की रकम से सम्बन्धित ठेका खाता डेबिट कर दिया जाता है । यदि श्रमिक सम्पूर्ण समय एक ही ठेके पर कार्य करता है तो समय पत्रक (Time Card) से ही मजदूरी ज्ञात कर ली जाती है परन्तु जो श्रमिक एक से अधिक ठेकों पर कार्य करते हैं उनके लिए समय कार्ड तथा उपकार्य-कार्ड का उपयोग कर मजदूरी-संक्षिप्ति बनाकर . अलग-अलग ठेके पर किये गये कार्य की मजदूरी ज्ञात कर ली जाती है । ठेका खाता बनाने की तिथि पर जो मजदूरी देय तो हो गयी है, परन्तु जिसका भुगतान नहीं किया गया है उसे अदत्त (Unpaid or Outstanding) या अर्जित (Accrued) मजदूरी के रूप में ठेके खाते की डेबिट में ही दिखा देते हैं । इसका दूसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि अदत्त या अर्जित मजदूरी की रकम को चुकता की गई मजदूरी के साथ जोड़कर ही लिख दें।
अन्य प्रत्यक्ष व्यय (Other Direct Expenses)-
ठेके पर प्रत्यक्ष रूप से किये जाने वाले अन्य व्यय भी ठेका-खाते के डेबिट पक्ष में लिखे जाते हैं । यदि कुछ प्रत्यक्ष व्यय अदत्त (Accrued or outstanding) होते हैं तो वर्ष के अन्त में इन्हें भुगतान किये गये व्ययों के साथ ही ठेका खाते में डेबिट कर दिया जाता है ।
अप्रत्यक्ष व्यय (Indirect Expenses)-
कुछ व्यय ऐसी प्रकृति के होते हैं जो कई ठेकों पर सम्मिलित रूप से किये जाते हैं और उन्हें निश्चित रूप से अलग-अलग ठेकों पर बांटा जाना सम्भव नहीं होता,जैसे- मैनेजर,इन्जीनियर,सुपरवाइजर आदि के वेतन,स्टोर की व्यवस्था सम्बन्धी व्यय,प्रशासन तथा कार्यालय से सम्बन्धित व्यय आदि । ऐसे व्ययों को निम्नलिखित में से किसी भी उचित आधार पर अलग-अलग ठेकों के लिये बाँटा जा सकता है-
(a) प्रत्यक्ष श्रम के आधार पर,
(b) प्रत्यक्ष सामग्री के आधार पर,
(c) मूल लागत के आधार पर,
(d) श्रम घण्टा दर (Labour Hour Rate)
प्लाँट एवं मशीनरी (Plant and Machinery)–
लगभग प्रत्येक ठेके में प्लान्ट तथा मशीनों का प्रयोग होताहै । अतः इन पर होने वाले ह्रास की राशि ठेका खाता के डेबिट में लिखी जानी चाहिये । ह्रास का लेखा करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये।
(I) यदि मशीन अधिक मूल्य की है,तो इसकी पूरी राशि ठेका खाता के डेबिट पक्ष में लिखी जाती है और जब ठेका खाता बन्द किया जाता है तो मशीन की पुन: मूल्यांकित राशि को क्रेडिट पक्ष में लिख दिया जाता है।
(II) यदि मशीन किराये पर गई हो तो इसका किराया ही नाम पक्ष में लिखा जायेगा।
(III) जब मशीन थोड़े-थोड़े समय के लिये कई ठेकों पर काम में लाई जाती है तो ठेका खाता की केवल हास की राशि से ही डेबिट किया जाता है ।
(IV) जब मशीन कम मूल्य की होती है तब भी केवल ह्रास की राशि ही ठेका खाता में डेबिट की जाती है। ह्रास की गणना (Calculation of Depriciation) प्लांट तथा मशीन पर ह्रास निकालते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि ह्रास के प्रतिशत के साथ प्रति वर्ष लिखा है या नहीं। यदि ह्रास का प्रतिशत प्रतिवर्ष हो तो ह्रास की राशि की गणना प्लान्ट तथा मशीन के प्रयोग के समय को ध्यान में रखकर की जाती है और यदि ह्रास के प्रतिशत के साथ प्रतिवर्ष न लिखा हो तो प्लान्ट एवं मशीन के प्रयोग के समय को ध्यान में नहीं रखा जाता।
उप-ठेका लागत (Sub-Contract Cost)-
कभी-कभी ठेकेदार अपने ठेके का एक भाग पूरा करने का ठेका किसी दूसरे ठेकेदार को दे देता है । उदाहरण के लिए, एक ठेकेदार ने किसी पिक्चर हॉल को बनाने का ठेका लिया और ठेका लेने के उपरान्त नींव खोदने का ठेका ‘एक्स’ को,लकड़ी के काम का ठेका ‘वाई’ को तथा बिजली के काम का ठेका जैड’ को देता है ते इन तीनों ठेकेदारों को मुख्य ठेकेदार के द्वारा जो भुगतान किया जायेगा वह कुल ठेका लागत क ही एक अंग होगा । इस प्रकार जब ठेकेदार अपने ठेका कार्य के कुछ भाग को दूसरों को ठेका देकसम्पन्न कराते हैं तो इसे उप-ठेका कहा जाता है और उप-ठेका के लिए भुगतान की राशि उप-ठेक लागत कहलाती है जिसे ठेके खाते की डेबिट में लिखा जाता है।
अतिरिक्त किये गये कार्य की लागत (Costs of extra work done)-
कभी-कभ ठेकादाता मूल ठेके के अतिरिक्त कुछ अतिरिक्त कार्य भी ठेकेदार से करवाता है जिसके लिए व ठेकेदार से तय हुई रकम का अलग से भुगतान भी करता है।
ठेके खाते का जमा पक्ष
(Credit side of Contract Account)
(1) अप्रमाणित कार्य (Work Uncertified)-
ठेकेदार द्वारा किये गये कार्य का भाग जो प्रमाणित नहीं हो पाया है, “अप्रमाणित-कार्य” कहलाता है। अप्रमाणित कार्य = किया गया कार्य-प्रमाणित कार्य । अप्रमाणित कार्य की लागत को भी ठेका खाते के जमा पक्ष में दर्शाया जाता है।
(2) शेष प्लांट व मशीनरी- (Plant and Machinery in Hand)
-यदि कोई प्लान्ट तथा मशीनरी ठेके पर लाते समय अपने पूरे मूल्य से ठेका खाता के नाम लिखी जाती है तो उस प्लान्ट तथा मशीन को ठेके पर से हटाते समय न्यायोचित ह्रास घटाने के पश्चात् ठेका खाते के जमा पक्ष में भी दिखाया जाता है।
(3) सामग्री या संयन्त्र का अन्य ठेकों को स्थानान्तरण (Materials or Plant transferred to other Contracts)-
जब अनावश्यक सामग्री या संयन्त्र किसी दूसरे ठेके को स्थानान्तरित किया जाता है तो इस प्रकार स्थानान्तरित की गई सामग्री या संयन्त्र का मूल्य स्थानान्तरित करने वाले ठेके खाते की क्रेडिट में ‘By Material or Plant transferred to Contract No….’ लिखा जाता है।
(4) बेची गई सामग्री या संयन्त्र (Materials or Plant Sold)-
कार्यस्थल पर उपलब्ध सामग्री या संयन्त्र में से यदि कुछ सामग्री या संयन्त्र बेच दिया जाता है तो उसके बेचने से जो राशि . प्राप्त होती है उसे ठेके खाते के क्रेडिट में ‘By Sale of Material or Plant’ लिखते हैं। यदि विक्रय से कुछ लाभ हुआ है तो उसे ठेके खाते की डेबिट में “To P & LA/c’ लिखेंगे और यदि हानि हुई है तो उसे ठेके खाते की क्रेडिट में By P & LA/c’ लिखेंगे।
(5) लौटाई गई सामग्री या संयन्त्र (Materials or Plant Returned)-
ठेका पूरा होने पर अथवा वित्तीय वर्ष के बीच में यदि ठेका स्थल से कोई सामग्री या संयन्त्र वापस किया जाता है तो इस प्रकार वापस की गई सामग्री या संयन्त्र का मूल्य ठेके खाते की क्रेडिट में लिखा जाता है। इस सम्बन्ध में निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है
(i) यदि पूर्तिकर्ता को सामग्री वापस की गई है तो ठेके खाते की क्रेडिट में ‘By Material returned to Supplier’ लिखेंगे अर्थात् पूर्तिकर्ता का खाता डेबिट तथा ठेका खाता क्रेडिट होता है।
(ii) यदि सामग्री स्टोर्स को लौटाई जाती है तो ठेके खाते की क्रोडेट में ‘By Material returned to Stores’ लिखेंगे अर्थात् स्टोर्स नियन्त्रण खाता डेबिट तथा ठेका खाता क्रेडिट किया जाता है। ..
(iii) यदि वित्तीय वर्ष के दौरान निर्गमित प्लाण्ट का कुछ भाग स्टोर्स को वापस लौटा दिया जाता है तो ठेके खाते की क्रेडिट में By Plant returned to Store’ लिखेंगे।
(6) माल खोना, नष्ट होना या चोरी होना (Material Lost, Destroyed or Theft)-
ठेके पर जो माल खो जाता है, नष्ट हो जाता है उसके मूल्य से ठेका खाता जमा किया जाता है क्योंकि माल का खोना,नष्ट होना या चोरी जाना ठेके की लागत का अंग नहीं बन सकता।
(7) प्रमाणित कार्य (Work Certified)-
ठेकेदार द्वारा पूरे किये गये कार्य का वह भाग जो ठेकादाता के इन्जीनियर व शिल्पकार द्वारा पास कर दिया जाता है, प्रमाणित कार्य” कहलाता है । इस प्रमाणित कार्य के मूल्य को ठेका खाता के जमा पक्ष में लिखा जाता है।
(8) निर्माणाधीन कार्य (Work-in-progress)
यदि ठेका खाता तैयार करने की तिथि तक ठेका कार्य पूर्ण नहीं हुआ है तो उसे अपूर्ण ठेका कहा जाता है।
प्रक्रिया (विधि) लागत
(Process Costing)
प्रक्रिया लागत का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Process accounts)
किसी भी वस्तु का उत्पादन एक प्रक्रिया द्वारा पूरा करना सम्भव नहीं है । उन्हें अपनी अन्तिम स्थिति तक पहुँचने के लिए बहुत सी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है । एक प्रक्रिया द्वारा बनाया गया माल दूसरी प्रक्रिया के लिये कच्चे माल की भाँति कार्य करता है तथा दूसरी प्रक्रिया का तैयार माल तीसरी प्रक्रिया के लिये कच्चा माल होता है । इस प्रकार अनेक प्रक्रियाओं से गुजरते हए किसी वस्तु का उत्पादन कार्य पूरा होता है । इस प्रणाली का उपयोग कपड़ा,साबुन, चीनी, कागज, शराब,वनस्पति घी,रबड़ व टायर, रसायन, तेल,लोहा व इस्पात आदि उद्योगों में किया जाता है। प्रक्रिया लागत विधि में प्रत्येक प्रक्रिया का अलग-अलग खाता खोला जाता है । प्रत्येक खाते में उससे सम्बन्धित व्यय लिखे जाते हैं । इस प्रकार प्रत्येक प्रक्रिया की लागत अलग-अलग ज्ञात कर ली जाती है।
शार्ल्स के अनुसार, “विधि लागत लेखे ऐसे उद्योगों में प्रयोग किये जाते हैं जिनकी वस्तुओं का निर्माण विभिन्न प्रक्रियाओं में होता है तथा प्रत्येक प्रक्रिया की लागत ज्ञात किया जाना आवश्यक होता है।”
प्रक्रिया लागत लेखांकन का अभिप्राय ऐसी विधि से है जिसके अन्तर्गत निर्माण के प्रत्येक स्तर अथवा प्रत्येक प्रक्रिया पर उत्पाद (वस्तु) की उत्पादन लागत ज्ञात की जाती है ।
प्रक्रिया लागत विधि की मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
बी० के० भार के अनुसार, प्रक्रिया परिव्यायांकन एक या अधिक प्रक्रियाओं की लागत ज्ञात करने की एक विधि है जो कि कच्ची सामग्री को निर्मित उत्पाद में रूपान्तरित किये जाने से सम्बद्ध
हेल्डन के अनुसार, “प्रक्रिया परिव्यायांकन लागत ज्ञात करने की वह विधि है जिसका उपयोग प्रत्येक प्रक्रिया, प्रत्येक परिचालन अथवा उत्पादन के प्रत्येक स्तर पर उत्पाद की लागत ज्ञात करने के लिए किया जाता है।”
प्रक्रिया (विधि) लागता प्रक्रिया लागत लेखा विधि के उददेश्य
(Objectives of process costing)
प्रक्रिया लागत लेखांकन के मख्य उद्देश्य अथवा इसकी आवश्यकता के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं
(1) विभिन्न प्रक्रियाओं की लागत ज्ञात करना-ऐसी वस्तएँ जिनका उत्पादन विभिन्न चरणों परा होता है के निर्माण के प्रत्येक स्तर पर अथवा प्रत्येक प्रक्रिया की अलग-अलग लागत ज्ञात करना आवश्यक होता है । इससे लागतों पर नियन्त्रण स्थापित करने में काफी सुविधा रहता है। प्रक्रिया लागत लेखांकन की सहायता से विभिन्न प्रक्रियाओं की लागत ज्ञात हो जाती है ।
(2) विभागीय कुशलता एवं मितव्ययिता की जानकारी होना–प्रत्येक विभाग की कुशलता का उत्पादन प्रक्रिया को मितव्ययी बनाने के लिए प्रत्येक प्रक्रिया की अलग-अलग लागत ज्ञात मा आवश्यक होता है जो प्रक्रिया लागत लेखांकन की सहायता से ही प्राप्त हो सकती है।
(3) विभिन्न प्रक्रियाओं में होने वाले क्षय का ज्ञान जब कच्ची सामग्री विभिन्न प्रक्रियाओं होकर गजरती हैं तो रासायनिक प्रतिक्रियाओं तथा वाष्पीकरण,आदि अन्य कारणों से सामग्री काय होना स्वाभाविक है । परन्तु प्रत्येक प्रक्रिया में सामग्री का का क्षय (Wastage) भिन्न-भिन्न मात्रा में होता है। अतः प्रत्येक प्रक्रिया की सही लागत ज्ञात करने के लिए इस क्षय की मात्रा का भादोना भी आवश्यक है जो प्रक्रिया लागत लेखांकन की सहायता से ही प्राप्त हो सकती है।
उपोत्पाद का मूल्य ज्ञात करना—
कुछ उद्योगों में ‘मुख्य उत्पाद’ (Main product) का उत्पादन करते समय सहउत्पाद एवं उपोत्पाद भी निकलते हैं । जैसे, तेल निर्माण में खली,रुई में – बिनौला आदि । ऐसे उद्योगों में दोनों प्रकार के उत्पादों की सही लागत ज्ञात करने के लिए प्रक्रिया लेखों की आवश्यकता होती है।
प्रक्रिया लागत लेखांकन के सामान्य सिद्धान्त
(General Principles of Process Costing Method)
(1) सम्पूर्ण कारखाने को विभिन्न प्रक्रिया केन्द्रों या विभागों में बाँट दिया जाता है तत्पश्चात् प्रत्येक प्रक्रिया के लिए पृथक् खाता खोला जाता है अर्थात् जितनी प्रक्रियाओं द्वारा उत्पादन पूरा होता है,उतने ही प्रक्रिया खाते खोले जाते हैं।
(2) प्रत्येक प्रक्रिया में सामग्री,श्रम,प्रत्यक्ष व्यय,अप्रत्यक्ष व्यय,आदि के रूप में जो भी व्यय होता है, उन सबको उस प्रक्रिया खाते के डेबिट साइड में लिखा जाता है। अप्रत्यक्ष व्ययों को किसी उचित आधार पर बाँटकर प्रक्रिया खाते की डेबिट में लिखा जाता है । अप्रत्यक्ष व्ययों के बँटवारे के सम्बन्ध में कोई आधार न दिये होने पर उनका बँटवारा प्रत्यक्ष श्रम (मजदूरी) के आधार पर किया जाता है।
(3) प्रक्रिया में होने वाले क्षय का उचित लेखा रखा जाता है। यदि क्षय अथवा भार में कमी सामान्य हो तो उससे प्रक्रिया खाता क्रेडिट किया जाता है। यदि क्षय अथवा उसके अवशिष्ट • (Scrap) की बिक्री से कुछ धनराशि प्राप्त हो तो उसे भी सम्बन्धित प्रक्रिया खाते में क्रेडिट किया जाता है। इसके विपरीत यदि सामान्य से अधिक क्षय हो तो अतिरिक्त क्षय को असामान्य क्ष (Abnormal wastage) कहते हैं जिसे उत्पादन की लागत पर प्रक्रिया खाते में क्रेडिट करते है।
(4) यदि किसी प्रक्रिया में कोई उपोत्पाद (By product) उत्पन्न होता है तो उसकी लागत से प्रक्रिया खाता क्रैडिट किया जाता है।
(5) किसी भी प्रक्रिया में लगाई गई सामग्री की मात्रा उस प्रक्रिया खाते के डेबिट में लिखी जाती है जबकि जितना उत्पादन होता है उसकी मात्रा,तथा जितना क्षय होता है उसकी मात्रा प्रक्रिया खाते के क्रेडिट में लिखी जाती है।
(6) प्रत्येक प्रक्रिया का उत्पादन पूर्ण होने पर उस प्रक्रिया की कुल लागत में उत्पादित इकाइयों की संख्या का भाग देकर प्रति इकाई औसत लागत ज्ञात हो जाती है।
6. औसत लागत की गणना करते समय उत्पादन में सामान्य हानि तथा अवधि के प्रारम्भ व अन्त में अपूर्ण इकाइयों को भी ध्यान में रखा जाता है।
(7) कभी-कभी प्रत्येक प्रक्रिया के उत्पादन का एक भाग बिक्री के लिये गोदाम (Warehouse) में भेज देते हैं तथा शेष भाग पर आगे की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। इन दोनों भागों की मात्रा एवं लागत को सम्बन्धित प्रक्रिया खाते में क्रेडिट किया जाता है।
(8) कभी-कभी एक प्रक्रिया के उत्पादन को अगली प्रक्रिया में कुछ लाभ जोड़कर भेजा जाता है । लाभ की इस राशि को प्रक्रिया खाते में डेबिट करते हैं तथा उत्पादित वस्तु के मूल्य में जोड़ कर बढ़े हुये मूल्य से प्रक्रिया खाता क्रेडिट किया जाता है । इसी बढ़े हुये मूल्य से अगली प्रक्रिया को डेबिट किया जाता है । यदि इस प्रकार लाभ जोड़ने की प्रणाली अपनाई जाती हो तो वर्ष के अन्त में शेष स्टॉक के लिए लाभ-हानि खाते में बिना वसूल हुये लाभों के लिये आयोजन (Provision for Unrealised Profit) अवश्य करना चाहिये।
(9) जब एक उत्पादन-प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है तो उसमें निर्मित माल तथा उसी कुल लागत अगली प्रक्रिया में हस्तान्तरित कर दी जाती है और अन्तिम प्रक्रिया तक यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। परन्तु कभी-कभी ऐसी भी होता है कि केसी प्रक्रिया में निर्मित सम्पूर्ण माल अंगली प्रक्रिया में हस्तान्तरित न करके उसका कुछ भाग अगली प्रक्रिया में हस्तान्तरित कर दिया जाता है एवं कुछ भाग विक्रय हेतु गोदाम में हस्तान्तरितकर दिया जाता है या सीधा विक्रय कर दिया जाता है परन्तु दोनों का लेखा उस प्रक्रिया खाते की क्रेडिट में ही होता है।
परिचालन लागत
(Operating Cost)
परिचालन लागत का अर्थ
(Meaning of operating cost)
अनेक संस्थायें वस्तुओं का उत्पादन नहीं करतीं, बल्कि कुछ सेवाएँ प्रदान करती है। उदाहरण के लिए,रेलवे (Railways),मोटर कम्पनियाँ,ट्रामवे (Tramways), वाटर-वर्स,गैस व बिजली कम्पनियाँ, अस्पताल,होटल,डाक व तार विभाग आदि वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते वरन् सेवायें प्रदान करते हैं । इन संस्थाओं में अधिकाँश व्यय स्थायी प्रकृति के होते हैं । मोटर यातायात कम्पनी यह जानना चाहती है कि एक टन माल एक किलोमीटर ले जाने की लागत क्या होगी। एक मोटर-बस सेवा अथवा रेलवे कम्पनी यह जानना चाहती है कि प्रति यात्री प्रति किलोमीटर ले जाने की लागत क्या होगी। इसी प्रकार एक विद्युत कम्पनी यह जानना चाहती है कि प्रति किलोवाट या प्रति इकाई विद्युत की लागत क्या होगी । जब तक लागत का सही ज्ञान नहीं होगा,प्रदान की गई सेवा का उचित मूल्य निर्धारित नहीं किया जा सकता। सेवा प्रदान करने वाली संस्थायें सेवा की संचालन लागत या कार्य-संचालन लागत (Operating cost or Workin or Running cost) ज्ञात करने के लिए परिचालन लागत पद्धति’ प्रयोग करती हैं । प्रति इकाई लागत,कुल व्ययों या कुल लागतों में इकाइयों की संख्या का भाग देकर ज्ञात की जा सकती है।
परिवहन लागत ज्ञात करने के उद्देश्य …
Objects of Transport Costing
परिवहन संस्थायें विभिन्न भार, आकार व प्रकार के माल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाती तथा ले जाती हैं ।ये संस्थायें जानना चाहती हैं कि एक क्विण्टल माल को एक किलोमीटर ले जाने की लागत क्या है ? जिससे भाड़े की दरें निर्धारित की जा सकें। इसके अतिरिक्त परिवहन लागत ज्ञात करने के निम्न उद्देश्य हो सकते हैं
(iv) मरम्मत एवं रखरखाव के खर्चों पर नियन्त्रण रखना। csscanneलागत इकाई (Cost Unit)-परिवहन लागत में एक क्विटल माल एक किलोमीटर ले एक इकाई के रूप में प्रयोग करते हैं, जिसे क्विटल/किलोमीटर (QL / km) कहते हैं जादि यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है, तो एक यात्री को एक
लोमीटर ले जाने को इकाई के रूप में प्रयोग किया जाता है, जिसे “यात्री किलोमीटर
(Passenger/km.) कहते हैं।
मैट्रिक प्रणाली के प्रयोग से पूर्व ये इकाइयाँ “टन/मील” (ton/mile) तथा यात्री मील (Passenger/mile) कहलाती थीं।
लागत की गणना (Calculation of Cost)-
वर्ष के समस्त स्थायी, संचालन तथा रखरखाव के व्ययों को जोड़कर, वर्ष में ढोये गये कुल माल के “कुल क्विटल/किलोमीटर” अथवा ले जाये गये समस्त यात्रियों के “कुल यात्री/किलोमीटर” से भाग दे दिया जाता है । गणना सूत्र इस प्रकार होगाः
परिवर्तनशील व्यय (Variable charges)-
ऐसे व्यय जो वाहन को सुरक्षित रखने तथा वाहन को चलाने पर होते हैं उन्हें इस वर्ग में रखा जाता है। जैसे- मरम्मत एवं अनुरक्षण व्यय चिकनाई पदार्थ,टायर ट्यूब,पैट्रोल,डीजल,ह्रास,सहायक व ड्राइवर का वेतन आदि।
एक इकाई के रूप में प्रयोग करते हैं, जिसे क्विटल/किलोमीटर (QL / km) कहते हैं जादि यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है, तो एक यात्री को एक
लोमीटर ले जाने को इकाई के रूप में प्रयोग किया जाता है, जिसे “यात्री किलोमीटर
(Passenger/km.) कहते हैं।
मैट्रिक प्रणाली के प्रयोग से पूर्व ये इकाइयाँ “टन/मील” (ton/mile) तथा यात्री मील (Passenger/mile) कहलाती थीं।
लागत की गणना (Calculation of Cost)-
वर्ष के समस्त स्थायी, संचालन तथा रखरखाव के व्ययों को जोड़कर, वर्ष में ढोये गये कुल माल के “कुल क्विटल/किलोमीटर” अथवा ले जाये गये समस्त यात्रियों के “कुल यात्री/किलोमीटर” से भाग दे दिया जाता है । गणना सूत्र इस प्रकार होगाः
Total cost
Cost per passenger km. = km of the period
विद्युत का उत्पादन कोयले या जल से होता है । प्रथम किस्म की विद्युत को ताप-विद्युत तथा द्वितीय किस्म की विद्युत जल-विद्युत कहलाती है विद्युत का निर्माण शक्ति गृह (Power House म होता है । अब अणु विद्युत का निर्माण भी होने लगा है इसके लिये अणु शक्ति गृह बनाये जाने
वाष्प बनाकर उत्पादन किया जाता है तथा प्रति किलोवाट लागत ज्ञात की जाती है।
परिवर्तनशील व्यय (Variable Expenses)-
ताप-विद्युत के निर्माण से सम्बन्धित परिवर्तनशील व्ययों में निम्नांकित व्यय प्रमुख हैं
(i) ईधन (Fuel)-
कोयले की लागत, आन्तरिक गाड़ी भाड़ा, संग्रह सम्बन्धी व्यय का योग जिसमें प्रारम्भिक स्टॉक तथा अन्तिम स्टॉक का समायोजन किया जा चुका हो,प्रयुक्त ईंधन को लागता होता है इसमें राख हटाने की लागत जोड़कर तथा राख की बिक्री की राशि घटाकर ईंधन की वास्तविक लागत निकालते हैं।
(ii) प्रत्यक्ष श्रम (Direct Labour)-
विद्युत उत्पादन कार्य में लगे श्रमिकों की मजदूरी • इसमें सम्मिलित होती है।
(iii) जल-पूर्ति व्यय (Water Supply Expenses)-
वाष्प उत्पादन हेतु जल की निरन्तर पूर्ति आवश्यक होती है । इस पर होने वाला व्यय इसमें सम्मिलित होता है।
(iv) अन्य पदाथों पर व्यय (Other Supplics)-
तेल, ग्रीस, पुर्जे तथा अन्य सामान के क्रय होने वाला व्यय इसमें शामिल करते हैं।
(v) मरम्मत एवं अनुरक्षण (Repairs and Maintenance)-
यन्त्रों की मरम्मत आदि के व्यय इसमें शामिल होते हैं।
स्थायी व्यय (Fixed Expenses)-
निरीक्षण व्यय (Supervision charges), कार्यालय व्यय (Office expenses), भवन का ह्रास तथा पूंजी पर ब्याज स्थिर व्यय के उदाहरण हैं।
प्रति इकाई लागत (Cost per unit)-
समस्त परिवर्तनशील व्यय तथा स्थायी व्ययों के योग में कुल उत्पादित विद्युत के किलोवाट घण्टों का भाग देकर विद्युत उत्पादन की प्रति इकाई लागत ज्ञात की जाती है। Cocinar Kuh_ Total Variable Cost + Fixed Cost
लागत समाधान विवरण का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definitions of Cost Reconciliation Statement)
इस पद्धति के अन्तर्गत लागत लेखों के वित्तीय लेखों से मिलान की आवश्यकता नहीं होती । परन्तु जिन संस्थाओं में लागत एवं वित्तीय मदों का लेखा करने हेतु अलग-अलग पुस्तकें रखी जाती हैं, वहाँ उनके मिलान की आवश्यकता अनुभव होना स्वाभाविक ही है।
लागत लेखे तथा वित्तीय लेखे दोनों एक ही मूल पत्रों के आधार पर तैयार किये जाते हैं । व्यापारिक लेखे यदि वास्तविकताएँ हैं तो लागत लेखे अनुमान हैं। एक सफल व्यापारी वही है जिसके अनुमान वास्तविकताओं के निकटतम हों। अनुमानों तथा वास्तविकताओं का परीक्षण करने से यह ज्ञात हो जाता है कि अनुमान में मुख्य रूप से अन्तर किन कारणों से रहा ? इन अनुमानों का परीक्षण करके तथा इन कमियों एवं सीमाओं को देखकर यह ज्ञात किया जा सकता है कि वास्तव में अनुमानों में त्रुटि कहाँ थी और भविष्य में इन अनुमानों की वास्तविकता के निकट लाने का प्रयास किया जाता है ? ।
लागत समाधान विवरण के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं–
एच० जे० व्हैल्डन (H.J. Wheldon) के शब्दों में, लागत लेखाविधि एक अधूरी प्रणाली ही रहती है जब तक कि वह वित्तीय लेखों से इस प्रकार ग्रन्थित नहीं की जाती है कि लागत लेखों और वित्तीय लेखों द्वारा दर्शाए गए परिणामों का मिलान किया जा सके।”
वाल्टर डब्ल्यू० बिग (Walter W. Bigg) के अनुसार, “यद्यपि बहुत-सी दशाओं में लागत लेखे और वित्तीय लेखे पूर्णतया अलग-अलग रखे जाते हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वे एक-दूसरे के मिलान करने के योग्य बनाए जाएँ । यदि ऐसा करना सम्भव नहीं है तो लागत लेखों की गणना पर बहुत कम विश्वास किया जाएगा।”
लागत समाधान विवरण की उपर्युक्त वर्णित परिभाषाओं के विश्लेषणात्मक विवेचन के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि लागत समाधान विवरण से लागत लेखों एवं वित्तीय लेखों के शुद्ध लाभ अथवा शुद्ध हानि में भिन्नता होने के कारणों की विस्तृत जानकारियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
शब्दों में -“जब तक ला है। यदि वित्तीय लेखा किया जा सकेगा।
सभाधान विवरण तैयार करने के उद्देश्य
(Objects of Preparing Reconciliation Statement)
- वित्तीय लेखों तथा लागत लेखों को तैयार करने के मुख्य रूप से निम्नलिखित उद्देश्य है..
2. अन्तर के कारणों का ज्ञान प्राप्त करना-समाधान विवरण तैयार करने से दोनों लेखो के परिणाम में अन्तर होने के कारणों का पता चल जाता है । कारणों का पता होने से दीर्घकाल में लागत लेखों को और अधिक शुद्ध बनाया जा सकता है।
लागत लेखों एवं वित्तीय लेखों द्वारा प्रदर्शित परिणामों में अन्तर के कारण (Reasons of Difference Between the Results of Cost Accounts)
(1) उपरिव्ययों में अन्तर (Difference in direct Expenses)–
लागत लेखों में उपरिव्ययों का अवशोषण गत अनुभव के आधार पर अनुमानित मूल्यों पर किया जाता है जबकि वित्तीय लेखों में उपरिव्ययों की वास्तविक रकमें लिखी जाती हैं।
(2) प्रत्यक्ष व्ययों में अन्तर (Difference in direct Expenses)-
प्रत्यक्ष व्ययों के कारण दोनों पुस्तकों द्वारा प्रदर्शित परिणामों में अन्तर नहीं होता क्योंकि प्रत्यक्ष व्ययों का लेखा दोनों पुस्तकों में वास्तविक राशि पर ही किया जाता है।
(3) कुछ मदों का वित्तीय लेखों में सम्मिलित न किया जाना (Items excluded from financial Accounts)-
कुछ व्यय ऐसे होते हैं जिनका लेखा,लागत लेखों में तो किया जाता है परन्तु वित्तीय लेखों में उन्हें नहीं लिखा जाता, जिस कारण दोनों के परिणामों में अन्तर हो जाता
(4) कुछ मदों का लागत लेखों में सम्मिलित न होना (Items excluded from cost account)-
कुछ आय ऐसी होती हैं जो व्यापारिक लेखों में तो सम्मिलित की जाती हैं लेकिन लागत-लेखों में उन्हें नहीं दर्शाया जाता जैसे- प्राप्त कमीशन, पूँजीगत लाभ, आकस्मिक लाभ, बैंक से प्राप्त ब्याज आदि । लागत लेखों में इन आयों के सम्मिलित न करने से दोनों लेखों के परिणामों में अन्तर आ जाता है।
(5) ह्रास अपलिखित करने की विधियों में अन्तर (Difference in methods of charging Depreciations) –
हास अपलिखित करने की विभिन्न विधियाँ हैं और सामान्यतः प्रत्येक विधि द्वारा चार्ज किये जाने वाले ह्रास की राशि भी अलग-अलग आती है ।
(6) स्कन्ध के मूल्यांकन में अन्तर (Difference in stock valuation)-
वित्तीय लेखों में स्कन्ध का मूल्यांकन लागत मूल्य और बाजार मूल्य दोनों में से जो भी कम हो उस पर किया जाता है जबकि लागत लेखों में अन्तिम स्कन्ध का मूल्यांकन सदैव लागत पर किया जाता लागत समाधान विवरण तैयार करने की विधि (Procedure of Preparing Cost Reconciliation Statement) लागत समाधान विवरण तैयार करने के लिए लागत लेखों के लाभ को ही आधार मानकर लना चाहिए । इसके पश्चात निम्नलिखित कार्य करने चाहिए
(11) यदि लागत लेखों में कोई व्यय वित्तीय लेखों की अपेक्षा अधिक लिखा जाता है तो के आधिक्य को लागत लेखों के लाभ में जोड देना चाहिए। इसके विपरीत स्थिति के अन्तर कोलागत लेखों के लाभ में से घटा देना चाहिये।
(12) यदि लागत लेखों में वित्तीय लेखों की अपेक्षा बिक्री की मद अधिक लिख दी गई है तो उस आधिक्य को लागत लेखों के लाभ में से घटा देना चाहिए। इसके विपरीत स्थिति में अन्तर की राशि को लागत लेखों के लाभ में जोड़ देना चाहिए।
(13) यदि लागत लेखों में प्रारम्भिक स्कन्ध का मूल्य वित्तीय लेखों की अपेक्षा अधिक है तो अन्तर की राशि को लागत लेखों के लाभ में जोड़ देना चाहिए । इसके विपरीत स्थिति में अन्तर की राशि को लागत लेखों के लाभ में से घटा देना चाहिए।
(14) यदि लागत लेखों में अन्तिम स्कन्ध का मूल्य वित्तीय लेखों की अपेक्षा अधिक है तो अन्तर की राशि को लागत लेखों के लाभ में से घटा देना चाहिए । इसके विपरीत स्थिति में अन्तर की राशि को लागत लेखों के लाभ में जोड़ देना चाहिए।
(15) यदि कोई व्यय की मद लागत लेखों में नहीं दर्शाई गई है लेकिन वित्तीय लेखों में सम्मिलित कर ली गई है,तो उसे लागत लेखों में से घटा देना चाहिए। इसके विपरीत स्थिति में उसे लागत लेखों के लाभ में जोड़ देना चाहिए।
(16) यदि कोई आय की मद लागत लेखों में नहीं दर्शाई गई है लेकिन वित्तीय लेखों में सम्मिलित कर ली गई है,तो उसे लागत लेखों के लाभ में जोड़ देना चाहिए। इसके विपरीत स्थिति Cउससे लागल लेखों के लाभ में से घटा देना चाहिए।
निविदा मूल्य
Tendor Price
टेण्डर मूल्य का अर्थ एवं परिभाषा
Meaning & Definition of Tender Price
… प्रायः एक ठेकेदार ठेका कार्य शुरु करने से पूर्व ही उसकी अनुमानित लागत पर विचार करता | उत्पादकों को प्रायः ग्राहकों से आदेश प्राप्त करने के लिये उन्हें अनुमानित मूल्य बताना पड़ता है जो कि अनुमानित लागत में कुछ लाभ जोड़कर बताया जाता है । इसी को निविदा करना अथवा टेण्डर मूल्य कहते हैं। बड़े-बड़े व्यापारिक संस्थानों में कार्यों के लिये वास्तविक क्रय से पूर्व उत्पादकों से टेण्डर मूल्य की माँग की जाती है और जिस उत्पादक के द्वारा बनाये गये माल की किस्म सर्वश्रेष्ठ तथा टेण्डर मूल्य न्यूनतम होता है उसे ही माल की पूर्ति हेतु आदेश दिया जाता है ।
इंस्टीट्यूट ऑफ कॉस्ट एण्ड वर्क्स एकाउण्टस इंगलैण्ड के अनुसार-“लागत अनुमान-पत्र एक प्रलेख है जो सम्पूर्ण उत्पादन अथवा इकाई की अनुमानित लागत बताता है ।” टेण्डर मूल्य का निर्धारण अत्यन्त सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए क्योंकि टेण्डर मूल्य तुलनात्मक रूप से
अधिक होने पर उत्पादक को आदेश नहीं प्राप्त होगा तथा लागत से कम होने पर उसे हानि उठानी पड़ेगी। चूँकि निविदा मूल्य का निर्धारण उत्पादन से पूर्व ही करना पड़ता है अतः इसके लिए मुख्यतः पूर्व अनुभव एवं गत लागतों को आधार के रूप में प्रयोग किया जाता है । गत वर्ष या गत
अवधि में उसी प्रकार की वस्तुओं के निर्माण पर हुई लागत में सम्भावित परिवर्तनों को दृष्टि में रखकर टेण्डर तैयार किया जाता है।
निविदा तैयार करते समय ध्यान रखने योग्य बातें (Elements should be kept in mind in the preparation of tender)
(1) मूल्य परिवर्तन (Change in price)-
सामान्यतः बाजार में प्रतिदिन श्रम, सामग्री तथा उत्पादन के अन्य साधनों की कीमतों में परिवर्तन होता रहता है। अतः ठेकेदार को वर्तमान में निविदा मूल्य निर्धारित करते समय इन परिवर्तनों की जानकारी होना अति आवश्यक है ताकि उचित मूल्य निर्धारित किया जा सके।
(2) प्रति-इकाई लागत (Cost per unit)
ठेकेदार को प्रति इकाई लागत ज्ञात कर निविदा मूल्य/ 74 समय पर्याप्त सावधानी रखनी चाहिए क्योंकि एक पैसे के अन्तर का भी आदेश पर बहुत प्रभा पड़ता है।
(3) उत्पादन की मात्रा (Production Quantity)-
कुछ लागतों का उत्पादन की मात्र कम होने या अधिक होने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये लागतें स्थाई प्रकृति की होती हैं जबकि कुछ लागतें उत्पादन की मात्रा घटने पर घट जाती हैं व बढ़ने पर बढ़ जाती हैं। ये लागते परिवर्तनशील लागतें होती हैं । उत्पादन की मात्रा अधिक होने पर स्थिर लागतो का भार प्रति इकाई कम हो जाता है।
(4) परिवर्तन की लागत (Cost of Alteration)-
यदि आदेशित माल की किस्म । रूप, पैकिंग मूल्य, फैशन, वजन आदि में परिवर्तन की माँग की गई है तो उस परितर्वन पर आने वाली लागत को भी ध्यान रखना चाहिए। ..
(5) लाभ (Profit)
टेण्डर की लागत निकाल कर उसमें एक निश्चित प्रतिशत लाभ सम्मिलित किया जाता है । लाभ लागत का एक निश्चित प्रतिशत हो सकता है लाभ दो आधारे पर लगाया जा सकता है
(i) लागत पर लाभ का प्रतिशत,तथा
(ii) बिक्रा पर लाभ का प्रातशत
लाभ की गणना विधि
(i) लागत पर लाभ का प्रतिशत दिया होने परलाभ- कुल लागत X प्रतिशत100%
(ii) बिक्री पर लाभ का प्रतिशत दिया होने पर-कुल लागत X प्रतिशत100 %
टेण्डर मूल्य की गणना
Calculation of Tender Price
कभी-कभी कुछ वस्तुओं के उत्पादन की गत अवधि की लागत अथवा बिक्री आदि के पूर्ण
विवरण दिये होते हैं और इन्हीं विवरणों के आधार पर समान प्रकार की वस्तुओं के टेण्डर मूल्य की गणना की जाती है । यदि गत अवधि के उत्पादन लागत के विभिन्न व्ययपूर्ण राशि में आते हैं तो टेण्डर मूल्य की गणना प्रति इकाई लागत के आधार पर करनी चाहिए। टेण्डर व अनुमान के प्रश्नों में अनेक स्वरूप देखने को मिलते हैं । प्रमुख स्वरूप निम्नलिखित हैं
(I) जब सामग्री या श्रम या दोनों की लागतों में परिवर्तन हो (When there is a change in the price of materials)-टेण्डर की वस्तुओं में प्रयुक्त होने वाली सामग्री,श्रम एवं अन्य व्यय,गत अवधि की लागत के अनुपात में निकालने चाहिएँ। फिर जिस व्यय में वृद्धि हो उसमें उतना प्रतिशत जोड़ देना चाहिए, जिस व्यय में कमी होने की सम्भावना हो उसमें उतना प्रतिशत कम कर देना चाहिए तथा जिस व्यय के बारे में कुछ न दिया हो उसका वही अनुपात रखना चाहिए जो गत अवधि में था। लाभ का प्रतिशत वही रहेगा जो गत अवधि में या लागत या बिक्री मूल्य पर जो भी सुविधाजनक हो,लाभ का प्रतिशत निकाल लेना चाहिए।
जब टेण्डर गत अवधि के आधार पर तैयार किया जाये (When tender is prepared on the basis of last period profit)
इस प्रकार के निविदा स्वरूप को तभी प्रयोग किया जाता है जब टेण्डर या निर्ख मूल्य के निर्धारण हेतु गत अवधि की लागत सम्बन्धी सूचनाओं के साथ-साथ गत अवधि में उत्पादित संख्या भी बतायी गयी हो और निविदा हेतु वस्तु की वांछित संख्या भी दे रखी हो । सामान्यतः ऐसी दशा में गत अवधि में उत्पादित तथा निविदा वाली वस्तु की किस्म,आकार,स्वरूप तथा गुण समान होते हैं। इस ढंग में गत अवधि की लागत सूचनाओं के आधार पर लागत-पत्रक तैयार करके लागत के विभिन्न अंगों की प्रति इकाई लागत ज्ञात कर ली जाती है । तत्पश्चात् निविदा से सम्बन्धित वस्तु की संख्या का लागत के प्रत्येक अंग की प्रति इकाई से गुणा करके सम्भावित कुल लागत प्राप्त हो जाती है।
(III) स्थिर, परिवर्तनशील व अर्द्धपरिवर्तनशील लागतें (Fixed, variable and semi variable costs) स्थिर व्ययों पर उत्पादन की मात्रा घटाने या बढ़ाने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता जैसे, फैक्ट्री का किराया,मैनेजर का वेतन आदि । परिवर्तनशील व्ययों का उत्पादन की मात्रा के अनुसार आनुपातिक रूप से कम या अधिक होते है। यदि इन व्ययों के अनुपात से कम या अधिक होने का स्पष्ट निर्देश हो तो उसके अनुसार ही समायोजन कर लेना चाहिए । इस प्रकार के व्यय परिवर्तनशीलता तो रखते हैं किन्तु उत्पादन के साथ उनका प्रत्यक्ष आनुपातिक सम्बन्ध न होकर अनुपात से कम परिवर्तनशीलता होती है। इनके सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश दिये हुए होते हैं । जब प्रश्न में लागत सम्बन्धी सूचनाएँ उपयुक्त आधार पर दी गयी हो तो प्रश्न में दिये हुए निर्देशों को ध्यान में रखते हुए ही टेण्डर मूल्य की गणना की जाती है।
(IV) जब गत कुछ सप्ताहों, महीनों या वर्षों के व्ययों तथा उत्पादन के विवरण दिये हुए हों और उनके आधार पर अनुमान लगाना हो
कभी-कभी गत अवधियों की लागत व उत्पादन की मात्रा के वितरण दिये होते हैं। और उनके आधार पर चालू अवधि में कुछ निश्चित मात्रा का अनुमान तैयार करना होता है। लाभ का प्रतिशत भी प्रश्न में दिया होता है।
यदि गत अवधि में सामग्री व श्रम की लागत 2,00,000 रु० थी तथा निर्माण व्यय 40,000 रु० था तो निर्माण व्यय सामग्री तथा श्रम की मिश्रित लागत का 20% होगा। यदि चालू अवधि में सामग्री व श्रम की मिश्रित लागत 30,000 रु. हो तो निर्माण व्यय इस लागत का 20% अर्थात् 6,000 रु. होगा अतः जिस अनुपात में सामग्री तथा श्रम की मिश्रित लागत में परिवर्तन होता है, उसी अनुपात में निर्माणी व्यय में भी परिवर्तन होगा।
(ii) प्रति इकाई बिक्री व्यय पूर्ववत् रहेंगे प्रति इकाई बिक्री व्यय निश्चित रहते हैं, यदि गत . .. अवधि में कुल बिक्री व्यय 24,000 रु० तथा उत्पादित इकाइयाँ 12,000 थी तो प्रति इकाई बिक्री
व्यय 2 रु. हुआ। यदि चालू अवधि में अनुमानित उत्पादन 16,000 इकाइयाँ है तो कुल बिक्री
(ii) अन्य व्ययों में स्थिरता- अन्य व्यय कार्यालय व प्रशासन से सम्बकि अधिकांश तथा स्थिर प्रकति के होते हैं। अर्थात् उत्पादन में परिवर्तन होने पर भी कि
(I) जब टेण्डर में काम आने वाली सामग्री व श्रम का मूल्य तथा लाभ हो, अप्रत्यक्ष व्यय न दिये हों (When the amount of materials , required for tender is given percentage of promit is given. O me not given) इस प्रकार के प्रश्न का हल भी पूर्व स्वरूप का भाति का जो विवरण तैयार होगा उसमें तैयार माल का आरम्भिक व आतम रहातया नहीं होगा
अतः गत अवधि का लाभ मालूम नहीं होगा। लागत व लाभ लागत कार्यालय, लागत तथा कल लागत दिखायेगा। टेण्डर के अप्रत्यक्ष व्यय मा कारखाना परिव्यय श्रम पर प्रतिशत तथा प्रशासन पारव्यय का का होगा और न ही लाभ का विवरण मल व्यय उन्हीं आधारों कारखाना लागत पर क्यों बनाया जाता है ?
लागत–पत्र का अर्थ एवं परिभाषा
Meaning and Definition of Cost Sheet
लागत-पत्र या परिव्यय-पत्र उत्पादन के व्ययों को विश्लेषाणत्मक ढंग से करता है, जिससे उत्पादित इकाइयों की कुल उत्पादन लागत एवं प्रत्येक इकाई की ज्ञात हो सके । लागत-पत्र की कुछ परिभाषाएँ अग्रलिखित हैं
हैरॉल्ड जे० व्हेल्डन(Harold J. Wheldon) के शब्दों में, “लागत-पत्र प्रबन्धको के लिए तैयार किए जाते हैं। इसलिए इनमें उन सभी आवश्यक विवरणों को समि जाना चाहिए जो कि उत्पादन की कार्यक्षमता जाँचने मे प्रबन्धक की सहायता करेंगे।”
जे० आर बाटलीबॉय (J.R. Batilboi) के अनुसार, “लागत-पत्र तालिका के कर दिखाया गया एक विवरण-पत्र है, जो कि एक निश्चित समय की कुल उत्पादन लागत से इस प्रकार प्रस्तुत कार्ड की उत्पादन लागत पत्र प्रबन्धकों के प्रयोग को सम्मिलित किया
प्रकार प्रकट करता है। यह लागत लेखों की दोहरी लेखा प्रणाली का अंग नहीं होता । साधारणतः अधिक खाने भी बना दिए जाते हैं, जिससे चालू अवधि की लागत की तलना अवधि और गत वर्ष की उसी अवधि से की जा सके।”
वाल्टर डब्ल्यू० बिग (Walter W. Bigg) के शब्दों में, उत्पादन पर एक निश्चित समय अन्तर्गत किए जाने वाले व्ययों के विवरण वित्तीय पुस्तकों एवं भण्डार गृह के अभिलेखों से प्राप्त किए जा सकते हैं । इनको एक स्मरण-विवरण-पत्र रूप में दर्शाया जाता है। यदि यह विवरण-पत्र केवल एक निश्चित अवधि से उत्पन्न की हुई इकाइयों की लागत को ही दर्शाए तो इसे लागत-पत्र कहते हैं।”
‘आई० सी० एम० ए० इंग्लैण्ड’ (I.C.M.A. England) के अनुसार, “लागत-पत्र ऐसाप्रलेख है, जो किसी लागत केन्द्र अथवा इकाई के सम्बन्ध में अनुमानित विस्तृत लागत का संग्रहण प्रस्तुत करता है।” कार कहा जा सकता है कि लागत-पत्र तालिका के रूप में तैयार किया गया एक
जो एक निश्चित समय के कुल उत्पादन की लागत को विस्तार से प्रकट करता है । यह वा प्रणाली का अंग नहीं होता। इसमें सामान्यतः अधिक खाने बना दिये जाते हैं ताकि
या पिछले समयों की लागत में वर्तमान लागत की तुलना की जा सके।”
लागत-पत्र की विशेषताएँ (Characteristics of Cost Sheet)-
(1) यह कुल लागत एवं प्रति इकाई लागत दर्शाता है।
2 यह लागत के विभिन्न अंगों को भी स्पष्ट करता है।
(3) यह सामयिक होता है अर्थात् यह साप्ताहिक, अर्द्धमासिक,मासिक, त्रैमासिक आदि हो सकता है।
(4) यह विभिन्न लागतों का कुल लागत से सम्बन्ध प्रदर्शित करता है।
लागत–पत्र के लाभ एवं उद्देश्य
Advantages and Objects of Cost Sheet
एक लागत-पत्र उत्पादन संस्थाओं को अनेक प्रकार से लाभ पहुँचाता है इसलिए इसको तैयार किया जाता है । इसके कुछ लाभ निम्नलिखित हैं
(1) लागत नियन्त्रण लागत-पत्र का प्रमुख उद्देश्य उत्पादित वस्तु की गत निर्धारित करना है । लागत-पत्र की मदद से उत्पादित वस्तु की सही लागत निर्धारण सम्भव होती है।
(2) लागत-नियन्त्रण लागत-पत्र वर्तमान व्ययों को पिछले व्ययों से तुलना करता है, जिसमें उनके परिवर्तन के कारण ज्ञात किये जा सकते हैं। यदि व्ययों में वृद्धि का कारण कर्मचारियों की अकुशलता है तो उनको दूर करके व्ययों पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
(3) लागत समंकों का तुलनात्मक अध्ययन करना लागत-पत्र की सहायता से चालू अवधि के लागत समंकों की गत अवधि के लागत समंकों से तुलना करके यह सरलता से ज्ञात किया जा सकता है कि किन मदों पर अधिक व्यय हो रहा है और किन मदों पर कम व्यय हो रहा
(4) बिक्री मूल्य का निर्धारण करना उत्पादक वस्तु का बिक्री मूल्य सरलता से निर्धारित कर सकता है क्योंकि लागत-पत्र से उसको वस्तु की कुल लागत के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी रहती
(5) टेण्डर मूल्य निष्चित करना संस्था द्वारा टेण्डर तभी भरे जा सकते हैं जबकि संस्था की लागत का अधिकतम सही अनुमान हो। पिछले लागत-पत्रों का तुलनात्मक एवं विश्लेषाणत्मक अध्ययन करके ही टेण्डर लागत तथा मूल्य आधारित किया जा सकता है।
(6) उत्पादन कार्यक्षमता की जाँच लागत-पत्र प्रबन्धकों के प्रयोग के लिए ही तैयार किये जाते हैं। इनमें प्रदत्त सूचनाओं के आधार पर ही प्रबन्धक श्रमिकों की कार्यक्षमता का ज्ञान प्राप्त करते हैं । यदि उत्पादन क्षमता गिरती है तो इस पर नियन्त्रण रखा जा सकता है ।
लागत-पत्र के लाभ
Advantages of Cost sheet
(1) टेण्डर मूल्य के निर्धारण में सहायक
इसकी सहायता से टेण्डर मूल्य का निर्धारण सरलता से किया जा सकता है।
(2) निर्माता एवं प्रबन्धकों का पथ-प्रदर्शन (Guidance to Manufacturer and Managers)-
इसकी सहायता से निर्माता एवं प्रबन्धकों को वस्तु की लागतों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है कि कौन-कौन सी लागतें बढ़ रही हैं जिनको नियन्त्रण करने की आवश्यकता है।
(3) कुल लागत एवं प्रति इकाई लागत का ज्ञान करना (Computation of Total Cost and Cost per Unit)-
इसके द्वारा एक निश्चित अवधि में किए गए कुल उत्पादन की लागत ज्ञात हो जाती है।
(4) उत्पादन की प्रत्येक इकाई पर विभिन्न व्ययों का भाग ज्ञात करना (Computation of Part of Different Expenses on Production of Every Unit)
इसके द्वारा यह सुविधा से ज्ञात किया जा सकता है कि उत्पादन की प्रत्येक इकाई पर भिन्न-भिन्न व्ययों का कौन-सा भाग व्यय हुआ है।
(5) लागत समंकों के तुलनात्मक अध्ययन में सहायक (Helpful in Comparative Study of Costing Data)-
इसके द्वारा गत अवधि या अवधियों के लागत समंकों से तुलना करके यह सरलता से ज्ञात किया जा सकता है कि कौन-कौन से लागत व्यय बढ़ रहे हैं और कौन-कौन से लागत व्यय घट रहे हैं।
(6) बिक्री मूल्य के निर्धारण में सहायक (Helpful in Determination of selling Price)
उत्पादक लागत-पत्र की सहायता से वस्तु के बिक्री मूल्य का निर्धारण सरलता से कर
सकता है,क्योंकि लागत-पत्र से उसे वस्तु की प्रति इकाई की लागत के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी होती है
एकीकृत लेखों का अर्थ
Meaning of Integrated Accounts
एकीकृत लेखांकन की ऐसी प्रणाली जिसमें वित्तीय लेखे एवं लागत लेखे एक साथ एक ही ..
खाता पुस्तकों में रखे जाते हैं । एकीकृत लेखेकहलाते हैं । इस प्रणाली के अन्तर्गत लेखे इस प्रकार रखे जाते हैं कि उत्पादित वस्तुओं की विस्तृत लागत भी ज्ञात की जा सकती है। साथ ही रोकड देनदार व्ययों आदि के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती रहती है।
इन्स्टीट्यूट ऑफ कॉस्ट एण्ड मैनेजमेण्ट एकाउण्टेण्ट्स, इंग्लैण्ड (Institute of cost and Management Accounts, England) के अनुसार, “एकीकृत लेखांकन पद्धति एक ऐसी पद्धति है जिसमें यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी सम्बन्धित व्यय लागत लेखों में
अवशोषित कर लिए गये हो, वित्तीय एवं लागत लेखे अन्तर-संयोजित किये जाते हैं।”
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि एकीकृत लेखांकन पद्धति का आशय उस लेखांकन : पद्धति से है जिसमें वित्तीय एवं लागत व्यवहारों का लेखा एक ही खाताबही, जिसे एकीकृत खाताबही कहते हैं, में किया जाता है और उनके द्वारा प्रत्येक वस्तु, उपकार्य,प्रक्रिया की लागत. विश्लेषण करके व्यवसाय की सामूहिक स्थिति जानने के लिए लाभ-हानि खाता तथा आर्थिक चिट्ठा तैयार किया जाता है।
एकीकृत लेखांकन पद्धति की खाताबहियाँ एवं खाते :
(Ledger and Accounts in Integral Accounting System)
(1) उपरिव्यय नियन्त्रण खाता (Overheads Control Account)
कारखाना, कार्यालय एवं प्रशासन, बिक्री एवं वितरण उपरिव्ययों के लिए पृथक्-पृथंक नियन्त्रण खाते भी ‘खोले जा सकते हैं या सबके लिए एक उपरिव्यय नियन्त्रण खाता भी खोला जा सकता है। कारखाना उपरिव्यय से चालू कार्य खाता को डेबिट और इस खाते को क्रेडिट किया जाता है। प्रशासन उपरिव्यय से लाभ-हानि खाता को डेबिट और इस खाते को क्रेडिट किया जाता है । बिक्री एवं वितरण उपरिव्यय से बिक्री की लागत खाता को डेबिट और इस खाते को क्रेडिट किया जाता
(2) बिक्री लागत नियन्त्रण खाता (Cost of Sales Control Account)-
बेचे गए माल की लागत से इस खाते को डेबिट तथा निर्मित माल नियन्त्रण खाते को केडिट किया जाता
इसे प्रारम्भिक शेष एवं उत्पादन व्यय से डेबिट किया जाता है तथा निर्मित माल की लागत से क्रेडिट किया जाता है । शेष बचने पर अगले वर्ष ले जाते हैं । यह उपकार्य खाते का स्थान लेता है। .
(3) मजदूरी नियन्त्रण खाता (Wages Control Account)-
इसे दी गई एवं उपार्जित मजदूरी की राशि से डेबिट किया जाता है और चालू कार्य खाता क्रेडिट किया जाता है । अप्रत्यक्ष मजदूरी के लिए उपरिव्यय नियन्त्रण खाते को डेबिट और मजदूरी नियन्त्रण खाते को क्रेडिट किया जाता है।
(8) सामान्य खाता बही (General Ledger)-
इस खाता बही में उपरोक्त सभी सहायक खाता बहियों के नियन्त्रण खाते रखे जाते हैं साथ ही पूर्णतः वित्तीय खाते जैसे रोकड़ खाता, पूँजी खाता, स्थायी सम्पत्तियों के खाते, आदि रखे जाते हैं । लागत खाता बही नियन्त्रण खाता तथा सामान्य खाता बही समायोजन खाता खोलने की कोई आवश्यकता नहीं रहती । इस खाता बही में रखे जाने वाले प्रमुख खाते निम्नलिखित हैं : –
(i) स्टोर्स खाता बही नियन्त्रण खाता (Stores Ledger Control A/c)
(ii) चालू कार्य खाता बही नियन्त्रण (Work-in-Progress Ledger Control A/c)
(iii) स्टॉक खाता बही नियन्त्रण खाता (Stock Ledger Control A/c)
(iv) मजदूरी नियन्त्रण खाता (Wages Control A/c)
(v) प्रत्येक उपरिव्यय के लिए पृथक नियन्त्रण खाता
(vi) देनदारों का नियन्त्रण खाता (Debtors Control A/c)
(vii) लेनदारों का नियन्त्रण खाता (Creditors Control A/c)
(viii) अंश पूँजी खाता, रोकड़ खाता, बैंक खाता, प्रत्येक स्थायी सम्पत्ति का खाता, ह्रास प्रावधान खाता,छूट खाता (Discount A/c), अदत्त व्यय खाता,पूर्वदत्त व्यय खाता,लाभ-हानि खाता,आदि अन्य खाते।
गैर–एकीकृत तथा एकीकृत लेखांकन पद्धतियों में रोजनामचा प्रविष्टियाँ (Journal Entries in Non-integral and integral accounting system)
गैर-एकीकृत तथा एकीकृत लेखांकन पद्धतियों के अन्तर्गत की जाने वाली रोजनामचा प्रविष्टियाँ अग्रलिखित सारणी में प्रदर्शित हैं
लागत नियंत्रण लेखांकन से आशय एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Cost Control Accounting)
लागत-नियंत्रण लेखांकन प्रणाली से आशय एक ऐसी प्रणाली से है। जिसमें लेखा पुस्तकों के दो समूह रखे जाते हैं । एक समूह वित्तीय लेखों से सम्बन्धित होता है और दूसरा समूह लागत लेखों से सम्बन्धित होता है।
छोटे उत्पादक वित्तीय एवं लागत लेखे अलग-अलग नहीं रखते। वे वित्तीय लेखों के साथ ही लागत सम्बन्धी लेखें तैयार कर लेते हैं। इसके लिये विविध व्ययों श्रम, सामग्री आदि के विस्तृत लेखे रखे जाते हैं । ऐसे छोटे उत्पादक एक या दो वस्तुओं का निर्माण करते हैं इस विधि से कार्य करके समय श्रम एवं व्ययों में बचत करते हैं। किन्तु बड़े उत्पादकों को दोनों प्रकार के लेखे अलग-अलग रखने पड़ते हैं।
बी. के. भर के अनुसार “अ-एकीकृत लेखांकन प्रणाली के अन्तर्गत चूँकि लागत और वित्तीय लेखों के लिए पृथक बहियां रखी जाती हैं। लागत लेखा पालक लागत व्यवहारों के अभिलेखन के लिए उत्तरदायी होता है । जबकि वित्तीय लेखापालक वित्तीय अभिलेखों का प्रभारी होता है।”
लागत-नियंत्रण लेखे
(Cost Control Accounts) .
1) विक्रय की लागत खाता (Cost Of Salcs Account)
निर्मित माल बेच दिया जाता है उसकी लागत से यह खाता डेबिट किया जाता है तथा वाले बिक्री एवं वितरण व्यय भी इस खाते में डेबिट कर देते हैं । कुल बिक्री की राशि क्रेडिट किया जाता है। बिक्री का लाभ इस खाते को डेबिट करके लागत लाभ हस्तांतरित कर दिया जाता है।
(2) लागत लाभ-हानि खाता (Costing Profit and LOSS Account)
निती लाभ की राशि से यह खाता क्रेडिट करते हैं, असामान्य लाभ (Abnormal nine हई वृद्धि इस खाते में क्रेडिट करते हैं तथा असामान्य हानियाँ जैसे असामान्य क्षय सिर का वेतन आदि इस खाते में डेबिट करते हैं। उपरिव्यय समायोजन खाते के शेष अथवा उपरिव्यय. कार्यालय उपरिव्यय व बिक्री तथा वितरण उपरिवय्य खातों के शेष भी हस्तांतरित किये जाते हैं । अन्त में शुद्ध लाभ या शुद्ध हानि लागत खाताबही नियन्त्रण हस्तांतरित कर दी जाती है।
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